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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 154
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः, वामदेवो वा देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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सो꣡मः꣢ पू꣣षा꣡ च꣢ चेततु꣣र्वि꣡श्वा꣢साꣳ सुक्षिती꣣ना꣢म् । दे꣣वत्रा꣢ र꣣꣬थ्यो꣢꣯र्हि꣣ता꣢ ॥१५४

स्वर सहित पद पाठ

सो꣡मः꣢꣯ । पू꣣षा꣢ । च꣣ । चेततुः । वि꣡श्वा꣢꣯साम् । सु꣣क्षितीना꣢म् । सु꣣ । क्षितीना꣢म् । दे꣣वत्रा꣢ । र꣣थ्योः꣢꣯ । हि꣣ता꣢ ॥१५४॥


स्वर रहित मन्त्र

सोमः पूषा च चेततुर्विश्वासाꣳ सुक्षितीनाम् । देवत्रा रथ्योर्हिता ॥१५४


स्वर रहित पद पाठ

सोमः । पूषा । च । चेततुः । विश्वासाम् । सुक्षितीनाम् । सु । क्षितीनाम् । देवत्रा । रथ्योः । हिता ॥१५४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 154
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
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पदार्थ -
(सोमः पूषा च) चन्द्रमा और सूर्य अथवा मन और आत्मा (विश्वासाम् सुक्षितीनाम्) सब उत्कृष्ट प्रजाओं का (चेततुः) उपकार करना जानते हैं, वे (देवत्रा) विद्वज्जनों में (रथ्योः) रथारुढों के समान उन्नति के लिए प्रयत्नशील गुरु-शिष्य, माता-पिता, पिता-पुत्र, पत्नी-यजमान, स्त्री-पुरुष, शास्य-शासक आदि के (हिता) हितकारी होते हैं ॥१०॥

भावार्थ - इन्द्र नामक परमेश्वर की ही यह महिमा है कि उसकी रची हुई सृष्टि में सौम्य चन्द्रमा और तैजस सूर्य तथा मानव शरीर में सौम्य मन और तैजस आत्मा दोनों प्राण आदि के प्रदान द्वारा सब प्रजाओं का उपकार करते हैं। जैसे रथारूढ़ रथस्वामी और सारथि अथवा रानी और राजा क्रमशः मार्ग को पार करते चलते हैं, वैसे ही जो भी गुरु-शिष्य, माता-पिता, पिता-पुत्र, पत्नी-यजमान, स्त्री-पुरुष, शास्य-शासक आदि उन्नति के लिए प्रयत्न करते हैं, उनके लिए पूर्वोक्त दोनों चन्द्र-सूर्य और मन-आत्मा परम हितकारी होते हैं ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र और इन्द्र द्वारा रचित भूमि, गाय, वेदवाणी, चन्द्र, सूर्य आदि का महत्त्व वर्णित होने से और इन्द्र के पास से ऋत की मेधा की प्राप्ति का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिए ॥ द्वितीय—प्रपाठक में द्वितीय—अर्ध की प्रथमः—दशति समाप्त ॥ द्वितीय—अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥

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