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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1535
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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क꣡स्ते꣢ जा꣣मि꣡र्जना꣢꣯ना꣣म꣢ग्ने꣣ को꣢ दा꣣꣬श्व꣢꣯ध्वरः । को꣢ ह꣣ क꣡स्मि꣢न्नसि श्रि꣣तः꣢ ॥१५३५॥

स्वर सहित पद पाठ

कः꣢ । ते꣣ । जामिः꣢ । ज꣡ना꣢꣯नाम् । अ꣡ग्ने꣢꣯ । कः । दाश्व꣣ध्वरः । दा꣣शु꣢ । अ꣣ध्वरः । कः꣢ । ह꣣ । क꣡स्मि꣢꣯न् । अ꣣सि । श्रितः꣢ ॥१५३५॥


स्वर रहित मन्त्र

कस्ते जामिर्जनानामग्ने को दाश्वध्वरः । को ह कस्मिन्नसि श्रितः ॥१५३५॥


स्वर रहित पद पाठ

कः । ते । जामिः । जनानाम् । अग्ने । कः । दाश्वध्वरः । दाशु । अध्वरः । कः । ह । कस्मिन् । असि । श्रितः ॥१५३५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1535
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
हे (अग्ने) जगन्नायक परमेश्वर ! (जनानाम्) उत्पन्न मनुष्यों के मध्य (कः ते जामिः) कौन तेरा सहायक बन्धु है ? अर्थात् कोई नहीं है। (कः) मनुष्यों के मध्य कौन ऐसा है (दाश्वध्वरः) जिसका यज्ञ तेरे लिए कुछ फल देनेवाला हो ? अर्थात् कोई नहीं है, क्योंकि सब लोग अपने ही लाभ के लिए यज्ञ करते हैं, तेरे लाभ के लिए नहीं। (कः ह) तू कौन है ? (कस्मिन् श्रितः असि) किसके आश्रित है ? अन्तिम दोनों प्रश्नों का उत्तर है—तू (कः ह) निश्चय ही कमनीय, सबसे आगे बढ़ा हुआ और सुखस्वरूप है। (कस्मिन् असि श्रितः) भला किसके आश्रित हो सकता है, अर्थात् किसी के नहीं, क्योंकि तू आत्मनिर्भर है ॥१॥ यहाँ काकु वक्रोक्ति अलङ्कार है, तृतीय प्रश्न में श्लेष है। अथवा यह मन्त्र जिसमें उत्तर छिपा हुआ है, ऐसी पहेली है ॥१॥

भावार्थ - सबसे महान् परमेश्वर जगत् के सञ्चालन के लिए किसी सहायक बन्धु की या किसी आश्रयदाता की अपेक्षा नहीं करता। न ही किसी के किसी भी कार्य से अपना लाभ चाहता है ॥१॥

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