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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1560
ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - अग्निः छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुबुष्णिक्, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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भ꣣द्रं꣡ मनः꣢꣯ कृणुष्व वृत्र꣣तू꣢र्ये꣣ ये꣡ना꣢ स꣣म꣡त्सु꣢ सास꣣हिः꣢ । अ꣡व꣢ स्थि꣣रा꣡ त꣢नुहि꣣ भू꣢रि꣣ श꣡र्ध꣢तां व꣣ने꣡मा꣢ ते अ꣣भि꣡ष्ट꣢ये ॥१५६०॥

स्वर सहित पद पाठ

भ꣣द्र꣢म् । म꣡नः꣢꣯ । कृ꣣णुष्व । वृत्रतू꣡र्ये꣢꣯ । वृ꣣त्र । तू꣡र्ये꣢꣯ । ये꣡न꣢꣯ । स꣣म꣡त्सु꣢ । स꣣ । म꣡त्सु꣢꣯ । सा꣣सहिः꣢ । अ꣡व꣢꣯ । स्थि꣣रा꣢ । त꣣नुहि । भू꣡रि꣢꣯ । श꣡र्ध꣢꣯ताम् । व꣣ने꣡म । ते꣢ । अभि꣡ष्ट꣢ये ॥१५६०॥


स्वर रहित मन्त्र

भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये येना समत्सु सासहिः । अव स्थिरा तनुहि भूरि शर्धतां वनेमा ते अभिष्टये ॥१५६०॥


स्वर रहित पद पाठ

भद्रम् । मनः । कृणुष्व । वृत्रतूर्ये । वृत्र । तूर्ये । येन । समत्सु । स । मत्सु । सासहिः । अव । स्थिरा । तनुहि । भूरि । शर्धताम् । वनेम । ते । अभिष्टये ॥१५६०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1560
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे मनुष्य ! तू (वृत्रतूर्ये) जिसमें उपद्रवियों का वध किया जाता है, ऐसे सङ्ग्राम में (मनः) अपने मन को (भद्रम्) भद्र (कृणुष्व) बना, (येन) जिस मन से, तू (समत्सु) युद्धों में (सासहिः) शत्रुओं के छक्के छुड़ानेवाला होता है। (शर्धताम्) उपद्रवी शत्रुओं के (भूरि) बहुत से (स्थिरा) स्थिर बलों को (अवतनुहि) नीचा दिखा दे। हम (ते) तेरी (अभिष्टये) अभीष्ट-प्राप्ति के लिए (वनेम) मिलकर प्रयत्न करें ॥२॥

भावार्थ - भद्र मन से ही युद्ध करके ऐसा यत्न करना चाहिए कि शत्रु भी भद्र हो जाएँ, यदि भद्र न हों तो उन्हें विश्वहित के लिए बाँधकर कारागार में डाल दे या उनका वध कर दे ॥२॥

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