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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1681
ऋषिः - अम्बरीषो वार्षागिर ऋजिश्वा भारद्वाजश्च देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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प꣢रि꣣ त्य꣡ꣳ ह꣢र्य꣣त꣡ꣳ हरिं꣢꣯ ब꣣भ्रुं꣡ पु꣢नन्ति꣣ वा꣡रे꣢ण । यो꣢ दे꣣वा꣢꣫न्विश्वाँ꣣ इ꣢꣯त्परि꣣ म꣡दे꣢न स꣣ह गच्छ꣢꣯ति ॥१६८१॥

स्वर सहित पद पाठ

प꣡रि꣢꣯ । त्यम् । ह꣣र्यत꣢म् । ह꣡रि꣢꣯म् । ब꣣भ्रु꣢म् । पु꣣नन्ति । वा꣡रे꣢꣯ण । यः । दे꣣वा꣢न् । वि꣡श्वा꣢꣯न् । इ꣣त् । प꣡रि꣢꣯ । म꣡दे꣢꣯न । स꣣ह꣢ । ग꣡च्छ꣢꣯ति ॥१६८१॥


स्वर रहित मन्त्र

परि त्यꣳ हर्यतꣳ हरिं बभ्रुं पुनन्ति वारेण । यो देवान्विश्वाँ इत्परि मदेन सह गच्छति ॥१६८१॥


स्वर रहित पद पाठ

परि । त्यम् । हर्यतम् । हरिम् । बभ्रुम् । पुनन्ति । वारेण । यः । देवान् । विश्वान् । इत् । परि । मदेन । सह । गच्छति ॥१६८१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1681
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
योगाभ्यासी लोग (त्यम्) उस (हर्यतम्) चाहने योग्य, (बभ्रुम्) इन्द्रियों को विषय ग्रहण में सहायता देनेवाले, (हरिम्) ज्ञान के ग्रहण में साधनभूत मन को (वारेण) अशुद्धि-निवारक योगानुष्ठान से (परि पुनन्ति) पवित्र करते हैं, (यः) जो मन (मदेन सह) उत्साह के साथ (विश्वान् देवान् इत्) सभी इन्द्रियों में (परि गच्छति) उन-उनके विषय को ग्रहण कराने के लिए परिव्याप्त होता है, [क्योंकि मन का व्यापार न हो तो इन्द्रियां विषय को ग्रहण नहीं कर सकतीं] ॥३॥

भावार्थ - मनुष्यों का मन यदि दूषित हो तो वह इन्द्रियों को कुमार्ग पर ही ले जाता है। इसलिए अध्यात्म-जीवन के लिए और परमात्मा के दर्शन के लिए उसका शोधन अत्यन्त आवश्यक है ॥३॥

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