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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1715
ऋषिः - अवत्सारः काश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣣या꣡ नि꣢ज꣣घ्नि꣡रोज꣢꣯सा रथस꣣ङ्गे꣡ धने꣢꣯ हि꣣ते꣢ । स्त꣢वा꣣ अ꣡बि꣢꣯भ्युषा हृ꣣दा꣢ ॥१७१५॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣या꣢ । नि꣣जघ्निः꣢ । नि꣣ । जघ्निः꣢ । ओ꣡ज꣢꣯सा । र꣣थसङ्गे꣢ । र꣣थ । सङ्गे꣢ । ध꣡ने꣢꣯ । हि꣣ते꣢ । स्त꣡वै꣢꣯ । अ꣡बि꣢꣯भ्युषा । अ । बि꣣भ्युषा । हृदा꣢ ॥१७१५॥


स्वर रहित मन्त्र

अया निजघ्निरोजसा रथसङ्गे धने हिते । स्तवा अबिभ्युषा हृदा ॥१७१५॥


स्वर रहित पद पाठ

अया । निजघ्निः । नि । जघ्निः । ओजसा । रथसङ्गे । रथ । सङ्गे । धने । हिते । स्तवै । अबिभ्युषा । अ । बिभ्युषा । हृदा ॥१७१५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1715
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे पवमान सोम ! हे पवित्रतादायक सर्वान्तर्यामी जगदीश ! आप (अया) इस (ओजसा) बल से (निजघ्निः) काम-क्रोध आदि शत्रुओं को विनष्ट करनेवाले हो। (रथसङ्गे) मानव-देह रूप रथ की प्राप्ति होने पर (धने हिते) दिव्य ऐश्वर्य को पाने के लिए, मैं (अबिभ्युषा) निर्भय (हृदा) हृदय से, (स्तवै) आपकी स्तुति करता हूँ ॥२॥

भावार्थ - हार्दिक श्रद्धा से स्तुति किया गया जगदीश्वर स्तोता को आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं को विनष्ट करने के लिए बल प्रदान करके उसका उपकार करता है ॥२॥

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