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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1724
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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मा꣢ ते꣣ रा꣡धा꣢ꣳसि꣣ मा꣢ त꣢ ऊ꣣त꣡यो꣢ वसो꣣ऽस्मा꣡न्कदा꣢꣯ च꣣ना꣡ द꣢भन् । वि꣡श्वा꣢ च न उपमिमी꣣हि꣡ मा꣢नुष꣣ व꣡सू꣢नि चर्ष꣣णि꣢भ्य꣣ आ꣢ ॥१७२४॥

स्वर सहित पद पाठ

मा꣢ । ते꣣ । रा꣡धा꣢꣯ꣳसि । मा । ते꣣ । ऊत꣡यः꣢ । व꣣सो । अस्मा꣢न् । क꣡दा꣢꣯ । च꣢ । न꣢ । द꣣भन् । वि꣡श्वा꣢꣯ । च꣣ । नः । उपमिमीहि꣢ । उ꣣प । मिमीहि꣢ । मा꣣नुष । व꣡सू꣢꣯नि । च꣣र्षणि꣡भ्यः꣢ । आ ॥१७२४॥


स्वर रहित मन्त्र

मा ते राधाꣳसि मा त ऊतयो वसोऽस्मान्कदा चना दभन् । विश्वा च न उपमिमीहि मानुष वसूनि चर्षणिभ्य आ ॥१७२४॥


स्वर रहित पद पाठ

मा । ते । राधाꣳसि । मा । ते । ऊतयः । वसो । अस्मान् । कदा । च । न । दभन् । विश्वा । च । नः । उपमिमीहि । उप । मिमीहि । मानुष । वसूनि । चर्षणिभ्यः । आ ॥१७२४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1724
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे (वसो) निवासप्रद जगदीश्वर वा आचार्य ! (मा) न तो (ते) आपके (राधांसि) अहिंसा, सत्य आदि ऐश्वर्य और (मा) न ही (ते) आपकी (ऊतयः) रक्षाएँ (अस्मान्) हम आपके उपासकों वा आपके शिष्यों को (कदा चन) कभी भी (आदभन्) अपनी प्राप्ति से वञ्चित करें। हे (मानुष) मनुष्यों के हितकर्ता ! (चर्षणिभ्यः नः) हम मानवों को, आप (विश्वा च वसूनि) सभी ऐश्वर्य धन, धान्य, विद्या, दीर्घायुष्य, अभ्युदय, निःश्रेयस आदि (आ उपमिमीहि) चारों ओर से प्राप्त कराओ ॥२॥

भावार्थ - मनुष्यों को चाहिए कि परमात्मा और आचार्य का सेवन करके सब दिव्य ऐश्वर्य, सब योगविभूतियाँ और सब रक्षाएँ प्राप्त करें ॥२॥ इस खण्ड में जीवात्मा, परमात्मा, उपासक और गुरु-शिष्यों के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ उन्नीसवें अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥

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