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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1723
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
4
त्व꣢म꣣ङ्ग꣡ प्र श꣢꣯ꣳसिषो दे꣣वः꣡ श꣢विष्ठ꣣ म꣡र्त्य꣢म् । न꣢꣫ त्वद꣣न्यो꣡ म꣢घवन्नस्ति मर्डि꣣ते꣢न्द्र꣣ ब्र꣡वी꣢मि ते꣣ व꣡चः꣢ ॥१७२३॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । अ꣣ङ्ग꣢ । प्र । श꣣ꣳसिषः । देवः꣢ । श꣣विष्ठ । म꣡र्त्य꣢꣯म् । न । त्वत् । अ꣣न्यः꣢ । अ꣣न् । यः꣢ । म꣣घवन् । अस्ति । मर्डिता꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । ब्र꣡वी꣢꣯मि । ते꣣ । व꣡चः꣢꣯ ॥१७२३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमङ्ग प्र शꣳसिषो देवः शविष्ठ मर्त्यम् । न त्वदन्यो मघवन्नस्ति मर्डितेन्द्र ब्रवीमि ते वचः ॥१७२३॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । अङ्ग । प्र । शꣳसिषः । देवः । शविष्ठ । मर्त्यम् । न । त्वत् । अन्यः । अन् । यः । मघवन् । अस्ति । मर्डिता । इन्द्र । ब्रवीमि । ते । वचः ॥१७२३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1723
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में २४७ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में की गयी थी। यहाँ जगदीश्वर और आचार्य को सम्बोधन है।
पदार्थ -
हे (शविष्ठ) आत्मबल से बलिष्ठ जगदीश्वर वा आचार्य ! (देवः) प्रकाशक और विद्या आदि के दाता (त्वम्) आप (अङ्ग) शीघ्र ही (मर्त्यम्) उपासक मनुष्य वा शिष्य को (प्र शंसिषः) प्रशंसा का पात्र बनाओ। हे (मघवन्) सकल ऐश्वर्यों से युक्त जगदीश्वर वा विद्या के ऐश्वर्य से युक्त आचार्य ! (त्वत् अन्यः) आपसे भिन्न कोई (मर्डिता) मोक्ष-प्रदान वा विद्या आदि के प्रदान के द्वारा सुखदाता (न अस्ति) नहीं है। हे (इन्द्र) जगदीश्वर वा आचार्य ! मैं (ते) आपके लिए (वचः) प्रार्थना-वचन (ब्रवीमि) उच्चारण कर रहा हूँ ॥१॥
भावार्थ - परमेश्वर की उपासना करके और आचार्य के समीप शिष्यभाव से पहुँच कर मनुष्यों को सब अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त करना चाहिए ॥१॥
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