Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1726
ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - उषाः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
5

अ꣡श्वे꣢व चि꣣त्रा꣡रु꣢षी मा꣣ता꣡ गवा꣢꣯मृ꣣ता꣡व꣢री । स꣡खा꣢ भूद꣣श्वि꣡नो꣢रु꣣षाः꣡ ॥१७२६॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡श्वा꣢꣯ । इ꣣व । चित्रा꣢ । अ꣡रु꣢꣯षी । मा꣣ता꣢ । ग꣡वा꣢꣯म् । ऋ꣣ता꣡व꣢री । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । भूत् । अश्वि꣡नोः꣢ । उ꣣षाः꣢ ॥१७२६॥


स्वर रहित मन्त्र

अश्वेव चित्रारुषी माता गवामृतावरी । सखा भूदश्विनोरुषाः ॥१७२६॥


स्वर रहित पद पाठ

अश्वा । इव । चित्रा । अरुषी । माता । गवाम् । ऋतावरी । सखा । स । खा । भूत् । अश्विनोः । उषाः ॥१७२६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1726
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment

पदार्थ -
प्रथम—प्राकृतिक उषा के पक्ष में। (अश्वा इव) आकाश-व्यापी बिजली के समान (चित्रा) चित्र-विचित्र रंगवाली, (अरुषी) चमकीली, (गवां माता) किरणों की जननी, (ऋतावरी) सत्य नियमवाली (उषाः) उषा (अश्विनोः) आकाश और भूमि की (सखा) सहचरी (अभूत्) हो गयी है ॥ द्वितीय—दिव्य उषा के पक्ष में। (अश्वा इव) व्याप्त विद्युत् के समान (चित्रा) अद्भुत, (अरुषी) हिंसा न करनेवाली, (गवां माता) अध्यात्म-रश्मियों की माता (ऋतावरी) सत्यमयी (उषाः) ऋतम्भरा प्रज्ञा (अश्विनोः) आत्मा और मन की (सखा) सहचरी (अभूत्) हो गयी है ॥२॥ यहाँ श्लेष और उपमा अलङ्कार हैं ॥२॥

भावार्थ - जैसे अटल नियम से प्रतिदिन उदित होती हुई प्रकाशवती प्राकृतिक उषा आकाश-भूमि में व्याप जाती है, वैसे ही योगमार्ग में सत्यमयी ऋतम्भरा प्रज्ञा योगसाधक के आत्मा और मन को व्याप लेती है ॥२॥

इस भाष्य को एडिट करें
Top