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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1737
ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
4
अ꣣ग्निं꣡ तं म꣢꣯न्ये꣣ यो꣢꣫ वसु꣣र꣢स्तं꣣ यं꣡ यन्ति꣢꣯ धे꣣न꣡वः꣢ । अ꣢स्त꣣म꣡र्व꣢न्त आ꣣श꣢꣫वोऽस्तं꣣ नि꣡त्या꣢सो वा꣣जि꣢न꣣ इ꣡ष꣢ꣳ स्तो꣣तृ꣢भ्य꣣ आ꣡ भ꣢र ॥१७३७॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣ग्नि꣢म् । तम् । म꣣न्ये । यः꣢ । व꣡सुः꣢꣯ । अ꣡स्त꣢꣯म् । यम् । य꣡न्ति꣢꣯ । धे꣣न꣡वः꣢ । अ꣡स्त꣢꣯म् । अ꣡र्व꣢꣯न्तः । आ꣣श꣡वः꣢ । अ꣡स्त꣢꣯म् । नि꣡त्या꣢꣯सः । वा꣣जि꣡नः꣢ । इ꣡ष꣢꣯म् । स्तो꣣तृ꣡भ्यः꣢ । आ । भ꣣र ॥१७३७॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं तं मन्ये यो वसुरस्तं यं यन्ति धेनवः । अस्तमर्वन्त आशवोऽस्तं नित्यासो वाजिन इषꣳ स्तोतृभ्य आ भर ॥१७३७॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निम् । तम् । मन्ये । यः । वसुः । अस्तम् । यम् । यन्ति । धेनवः । अस्तम् । अर्वन्तः । आशवः । अस्तम् । नित्यासः । वाजिनः । इषम् । स्तोतृभ्यः । आ । भर ॥१७३७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1737
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४२५ क्रमाङ्क पर व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ अग्नि नाम से जगदीश्वर का परिचय प्रस्तुत करते हैं।
पदार्थ -
मैं (अग्निम्) अग्नि नामक जगदीश्वर (तं मन्ये) उसे मानता हूँ,(यः वसुः) जो धर्मात्माओं को निवास देनेवाला है, (अस्तं यम्) शरण-रूप जिसके पास (धेनवः) दुधारू गायें (यन्ति) मातृत्व की प्राप्ति के लिए पहुँचती हैं, (अस्तम्) शरण-रूप जिसके पास (आशवः) शीघ्रगामी (अर्वन्तः) घोड़े (यन्ति) वेग की प्राप्ति के लिए पहुँचते हैं, (अस्तम्) शरण-रूप जिसके पास (नित्यासः) अनादि और अनन्त (वाजिनः) जीवात्मा (यन्ति) बल के लिए पहुँचते हैं। हे अग्ने जगदीश्वर ! आप (स्तोतृभ्यः) स्तोताओं को, आपके गुण-कर्म-स्वभाव का कीर्तन करनेवाले मनुष्यों को (इषम्) अभीष्ट अभ्युदय और निःश्रेयस रूप फल (आ भर) प्रदान करो ॥१॥
भावार्थ - सभी अपनी-अपनी शक्ति को प्राप्त करने के लिए जिसकी शरण में पहुँचते हैं, वह परमेश्वर ही मुख्यतः अग्निशब्दवाच्य है ॥१॥
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