Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1738
ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
5

अ꣣ग्नि꣢꣫र्हि वा꣣जि꣡नं꣢ वि꣣शे꣡ ददा꣢꣯ति वि꣣श्व꣡च꣢र्षणिः । अ꣣ग्नी꣢꣯ रा꣣ये꣢ स्वा꣣भु꣢व꣣ꣳ स꣢ प्री꣣तो꣡ या꣢ति꣣ वा꣢र्य꣣मि꣡ष꣢ꣳ स्तो꣣तृ꣢भ्य꣣ आ꣡ भ꣢र ॥१७३८॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣ग्निः꣢ । हि । वा꣣जि꣡न꣢म् । वि꣣शे꣢ । द꣡दा꣢꣯ति । वि꣣श्व꣢च꣢र्षणिः । वि꣣श्व꣢ । च꣣र्षणिः । अग्निः꣢ । रा꣣ये꣢ । स्वा꣣भु꣡व꣢म् । सु꣣ । आभु꣡व꣢म् । सः । प्री꣣तः꣢ । या꣣ति । वा꣡र्य꣢꣯म् । इ꣡ष꣢꣯म् । स्तो꣣तृ꣡भ्यः꣢ । आ । भ꣣र ॥१७३८॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्निर्हि वाजिनं विशे ददाति विश्वचर्षणिः । अग्नी राये स्वाभुवꣳ स प्रीतो याति वार्यमिषꣳ स्तोतृभ्य आ भर ॥१७३८॥


स्वर रहित पद पाठ

अग्निः । हि । वाजिनम् । विशे । ददाति । विश्वचर्षणिः । विश्व । चर्षणिः । अग्निः । राये । स्वाभुवम् । सु । आभुवम् । सः । प्रीतः । याति । वार्यम् । इषम् । स्तोतृभ्यः । आ । भर ॥१७३८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1738
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment

पदार्थ -
(विश्वचर्षणिः) विश्व का द्रष्टा (अग्निः हि) अग्निशब्दवाच्य जगदीश्वर ही (विशे) प्रजा को (वाजिनम्) बलवान् प्राण (ददाति) देता है। (अग्निः) वह अग्निशब्दवाच्य जगदीश्वर ही (सु आभुवम्) भली-भाँति शरीर में जन्म ग्रहण किये हुए जीव को (राये) ऐश्वर्य के लिए प्रेरित करता है। (प्रीतः) शुभ कर्मों से प्रसन्न हुआ (सः) वह अग्नि जगदीश्वर (वार्यम्) वरणीय उपासक को (याति) प्राप्त होता है। हे जगदीश ! (स्तोतृभ्यः) आपके गुण-कर्म-स्वभाव की स्तुति करनेवाले मनुष्यों को आप (इषम्) अभीष्ट अभ्युदय और निःश्रेयसरूप फल (आ भर) प्रदान करो ॥२॥

भावार्थ - कोई सम्राट् जैसे प्रजाओं को शुभ कर्मों में प्रेरित करता हुआ उन्हें सुख और ऐश्वर्य प्रदान करता है, वैसे ही जगदीश्वर उपासकों को अभ्युदय और मोक्षरूप फल देकर उनका कल्याण करता है ॥२॥

इस भाष्य को एडिट करें
Top