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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1743
ऋषिः - अवस्युरात्रेयः देवता - अश्विनौ छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
8

प्र꣡ति꣢ प्रि꣣य꣡त꣢म꣣ꣳ र꣢थं꣣ वृ꣡ष꣢णं वसु꣣वा꣡ह꣢नम् । स्तो꣣ता꣡ वा꣢मश्विना꣣वृ꣢षि꣣ स्तो꣡मे꣢भिर्भूषति꣣ प्र꣢ति꣣ मा꣢ध्वी꣣ म꣡म꣢ श्रुत꣣ꣳ ह꣡व꣢म् ॥१७४३॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣡ति꣢꣯ । प्रि꣣य꣡त꣢मम् । र꣡थ꣢꣯म् । वृ꣡ष꣢꣯णम् । व꣣सुवा꣡ह꣢नम् । व꣣सु । वा꣡ह꣢꣯नम् । स्तो꣣ता꣢ । वा꣣म् । अश्विनौ । ऋ꣡षिः꣢꣯ । स्तो꣡मे꣢꣯भिः । भू꣣षति । प्र꣡ति꣢꣯ । मा꣢꣯ध्वीइ꣡ति꣢ । म꣡म꣢꣯ । श्रु꣣तम् । ह꣡व꣢꣯म् ॥१७४३॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रति प्रियतमꣳ रथं वृषणं वसुवाहनम् । स्तोता वामश्विनावृषि स्तोमेभिर्भूषति प्रति माध्वी मम श्रुतꣳ हवम् ॥१७४३॥


स्वर रहित पद पाठ

प्रति । प्रियतमम् । रथम् । वृषणम् । वसुवाहनम् । वसु । वाहनम् । स्तोता । वाम् । अश्विनौ । ऋषिः । स्तोमेभिः । भूषति । प्रति । माध्वीइति । मम । श्रुतम् । हवम् ॥१७४३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1743
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
हे (अश्विनौ) योगशास्त्र के अध्यापक और योगक्रिया के प्रशिक्षक ! (प्रियतमम्) अतिशय प्रिय, (वृषणम्) बलवान्, (वसुवाहनम्) निवासक मन, प्राण, इन्द्रियों आदि से चलाये जानेवाले (रथम्) आत्मा से अधिष्ठित शरीर-रथ को (प्रति) लक्ष्य करके अर्थात् अध्यात्म और शरीर-योग का प्रशिक्षण देने के लिए (स्तोता) तुम्हारा प्रशंसक (ऋषिः) तत्त्वदर्शी आचार्य (स्तोमेभिः) प्रशंसा-वचनों से (वाम्) तुम दोनों को (प्रतिभूषति) अलंकृत कर रहा है अर्थात् तुम्हारी प्रशंसा कर रहा है। हे (माध्वी) प्राणों की मधुविद्या जाननेवालो ! तुम (मम) मुझ योग-प्रशिक्षण चाहनेवाले की (हवम्) पुकार को (श्रुतम्) सुनो ॥१॥

भावार्थ - जो योग-प्रशिक्षण पाने के इच्छुक हों, उन्हें चाहिए कि वे योगकला में कुशल, प्राणविद्या के ज्ञाता योगशास्त्र पढ़ानेवाले और योग-क्रियाओं का प्रशिक्षण देनेवाले के पास जाकर अष्टाङ्गयोग की विधि से योगाभ्यास करके सब दुःखों से मुक्ति प्राप्त करें ॥१॥

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