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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1775
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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अ꣣भि꣢ द्वि꣣ज꣢न्मा꣣ त्री꣡ रो꣢च꣣ना꣢नि꣣ वि꣢श्वा꣣ र꣡जा꣢ꣳसि शुशुचा꣣नो꣡ अ꣢स्थात् । हो꣢ता꣣ य꣡जि꣢ष्ठो अ꣣पा꣢ꣳ स꣣ध꣡स्थे꣢ ॥१७७५॥

स्वर सहित पद पाठ

अभि꣢ । द्वि꣣ज꣡न्मा꣢ । द्वि꣣ । ज꣡न्मा꣢꣯ । त्रि । रो꣣चना꣡नि꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯ । र꣡जा꣢꣯ꣳसि । शु꣣शुचानः꣢ । अ꣣स्थात् । हो꣡ता꣢꣯ । य꣡जि꣢꣯ष्ठः । अ꣣पा꣢म् । स꣣ध꣡स्थे꣢ । स꣣ध꣢ । स्थे꣣ ॥१७७५॥


स्वर रहित मन्त्र

अभि द्विजन्मा त्री रोचनानि विश्वा रजाꣳसि शुशुचानो अस्थात् । होता यजिष्ठो अपाꣳ सधस्थे ॥१७७५॥


स्वर रहित पद पाठ

अभि । द्विजन्मा । द्वि । जन्मा । त्रि । रोचनानि । विश्वा । रजाꣳसि । शुशुचानः । अस्थात् । होता । यजिष्ठः । अपाम् । सधस्थे । सध । स्थे ॥१७७५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1775
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(द्विजन्मा) एक जन्म माता-पिता से और दूसरा जन्म आचार्य तथा विद्या से, इस प्रकार जिसने दो जन्म प्राप्त किये हैं, वह (त्री रोचनानि) दैहिक, आत्मिक और समाजिक तीन तेजों को (अभि) प्राप्त करके (विश्वा रजांसि) सब रजोगुणों को (शुशुचानः) सत्त्व गुण से प्रकाशित करता हुआ, (होता) होम करनेवाला, (अपां सधस्थे) नदियों के सङ्गम पर (यजिष्ठः) अतिशय परमेश्वर-पूजा रूप यज्ञ को करनेवाला होकर (अस्थात्) निवास करता है ॥२॥

भावार्थ - मनुष्य माता-पिता से जन्म पाकर यथासमय गुरुकुल में प्रविष्ट होकर, विद्याएँ पढ़कर, तेज प्राप्त करके, आचार्य के गर्भ से दूसरा जन्म पाकर, समावर्तन संस्कार करा कर, स्नातक बनकर, घर जाकर ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ आदि शुभकर्मों को करता हुआ और दूसरे मनुष्यों को उपदेश द्वारा धार्मिक बनाता हुआ जीवन व्यतीत करे ॥२॥

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