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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1776
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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अ꣣य꣢꣫ꣳ स होता꣣ यो꣢ द्वि꣣ज꣢न्मा꣣ वि꣡श्वा꣢ द꣣धे꣡ वार्या꣢꣯णि श्रव꣣स्या꣢ । म꣢र्तो꣣ यो꣡ अ꣢स्मै सु꣣तु꣡को꣢ द꣣दा꣡श꣢ ॥१७७६॥

स्वर सहित पद पाठ

अय꣢म् । सः । हो꣡ता꣢ । यः । द्वि꣣ज꣡न्मा꣢ । द्वि꣣ । ज꣡न्मा꣢꣯ । वि꣡श्वा꣢꣯ । द꣣धे꣢ । वा꣡र्या꣢꣯णि । श्र꣣वस्या꣢ । म꣡र्तः꣢꣯ । यः । अ꣣स्मै । सुतु꣡कः꣢ । सु꣣ । तु꣡कः꣢꣯ । द꣣दा꣡श꣢ ॥१७७६॥


स्वर रहित मन्त्र

अयꣳ स होता यो द्विजन्मा विश्वा दधे वार्याणि श्रवस्या । मर्तो यो अस्मै सुतुको ददाश ॥१७७६॥


स्वर रहित पद पाठ

अयम् । सः । होता । यः । द्विजन्मा । द्वि । जन्मा । विश्वा । दधे । वार्याणि । श्रवस्या । मर्तः । यः । अस्मै । सुतुकः । सु । तुकः । ददाश ॥१७७६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1776
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
(यः द्विजन्मा) जो माता-पिता से एक और आचार्य से दूसरा इस प्रकार दो जन्म प्राप्त करके द्विज हो जाता है, (सः अयम्) वह यह (होता) सबको विद्या, सुख आदि देनेवाला और होम करनेवाला होता है। साथ ही (विश्वा) सब (श्रवस्या) यश के योग्य (वार्याणि) वरणीय यम, नियम आदि कर्मों को (दधे) अपने जीवन में धारण कर लेता है। (यः) और जो (मर्तः) मनुष्य अर्थात् आचार्य (अस्मै) इसे (ददाश) विद्या देता है, वह उस सुशिक्षित विद्वान् द्विज से (सुतुकः) सुपुत्रवान् हो जाता है ॥३॥

भावार्थ - आचार्य से विद्या पढ़कर, स्नातक हो, द्विज बनकर ऐसा आचरण करे, जिससे उसका यश सब जगह फैले। ऐसे गुणवान् द्विज से सचमुच आचार्य भी स्वयं को सुपुत्रवान् मानता है ॥३॥

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