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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1788
ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः
देवता - सूर्यः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
5
ब꣢ण्म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि सूर्य꣣ ब꣡डा꣢दित्य म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि । म꣣ह꣡स्ते꣢ स꣣तो꣡ म꣢हि꣣मा꣡ प꣢निष्टम म꣣ह्ना꣡ दे꣢व म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि ॥१७८८॥
स्वर सहित पद पाठब꣢ट् । म꣣हा꣢न् । अ꣣सि । सूर्य । ब꣢ट् । आ꣣दित्य । आ । दित्य । म꣢हान् । अ꣣सि । महः꣢ । ते꣣ । सतः꣢ । म꣣हिमा꣢ । प꣣निष्टम । मह्ना꣢ । दे꣣व । महा꣢न् । अ꣣सि ॥१७८८॥
स्वर रहित मन्त्र
बण्महाꣳ असि सूर्य बडादित्य महाꣳ असि । महस्ते सतो महिमा पनिष्टम मह्ना देव महाꣳ असि ॥१७८८॥
स्वर रहित पद पाठ
बट् । महान् । असि । सूर्य । बट् । आदित्य । आ । दित्य । महान् । असि । महः । ते । सतः । महिमा । पनिष्टम । मह्ना । देव । महान् । असि ॥१७८८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1788
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में २७६ क्रमाङ्क पर परमात्मा, राजा और आचार्य के विषय में व्याख्यात की गयी थी। यहाँ सूर्य के दृष्टान्त से जीवात्मा को उद्बोधन दे रहे हैं।
पदार्थ -
(बट्) सचमुच, हे (सूर्य) सूर्य ! तू (महान् असि) विशाल है, (बट्) सचमुच हे (आदित्य) आदित्य ! तू (महान् असि) महान् है। हे (पनिष्टम) सौरमण्डल में सबसे अधिक स्तुति योग्य ! (महः सतः ते) तुझ तेजस्वी की (महिमा) महिमा अद्भुत है। हे (देव) प्रकाशक ! तू (मह्ना) महिमा से (महान् असि) महान् है—यह सूर्य की अन्योक्ति से जीवात्मा को कहा गया है ॥१॥ यहाँ अन्योक्ति अलङ्कार है ॥१॥
भावार्थ - सूर्य परिणाम में महान् है, क्योंकि उसकी परिधि आठ लाख कोस की लम्बाई से भी अधिक है; कर्म से महान् है, क्योंकि सब ग्रहोपग्रहों का प्रकाशक और जीवनाधार है; गुरुत्वाकर्षण में महान् है, क्योंकि सब आकाशीय पिण्डों को अपने आकषर्ण से धारण किये हुए है; ज्योति में महान् है, क्योंकि ज्योति का पुञ्ज ही है। इसी प्रकार मनुष्य के आत्मा में भी बहुत बड़ी शक्ति निहित है, उसे पहचानकर वह महान् कर्मों को करे, यह उसे उद्बोधन दिया गया है ॥१॥
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