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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1793
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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प्र꣡ वो꣢ म꣣हे꣡ म꣢हे꣣वृ꣡धे꣢ भरध्वं꣣ प्र꣡चे꣢तसे꣣ प्र꣡ सु꣢म꣣तिं꣡ कृ꣢णुध्वम् । वि꣡शः꣢ पू꣣र्वीः꣡ प्र च꣢꣯र चर्षणि꣣प्राः꣢ ॥१७९३॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣢ । वः꣣ । महे꣢ । म꣣हेवृ꣡धे꣢ । म꣣हे । वृ꣡धे꣢꣯ । भ꣣रध्वम् । प्र꣡चे꣢꣯तसे । प्र । चे꣣तसे । प्र꣢ । सु꣣मति꣢म् । सु꣣ । मति꣢म् । कृ꣣णुध्वम् । वि꣡शः꣢꣯ । पू꣣र्वीः꣢ । प्र । च꣣र । चर्षणिप्राः꣣ । च꣣र्षणि । प्राः꣢ ॥१७९३॥


स्वर रहित मन्त्र

प्र वो महे महेवृधे भरध्वं प्रचेतसे प्र सुमतिं कृणुध्वम् । विशः पूर्वीः प्र चर चर्षणिप्राः ॥१७९३॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । वः । महे । महेवृधे । महे । वृधे । भरध्वम् । प्रचेतसे । प्र । चेतसे । प्र । सुमतिम् । सु । मतिम् । कृणुध्वम् । विशः । पूर्वीः । प्र । चर । चर्षणिप्राः । चर्षणि । प्राः ॥१७९३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1793
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
हे विद्यार्थियो वा प्रजाओ ! तुम (महेवृधे) महत्त्व के लिए बढ़ानेवाले, (महे) महान् इन्द्र अर्थात् आचार्य वा परमात्मा के लिए (प्र भरध्वम्) उत्तम उपहार लाओ। (प्रचेतसे) प्रकृष्ट चित्त वा प्रकृष्ट ज्ञानवाले उसके लिए (सुमतिम्) उत्तम स्तुति (प्र कृणुध्वम्) भली-भाँति करो। हे आचार्य वा परमात्मन्! (चर्षणिप्राः) मनुष्यों को विद्या,धन, धान्य और सद्गुणों से पूर्ण करनेवाले आप (विशः) विद्यार्थियों वा प्रजाओं को (पूर्वीः) श्रेष्ठ (प्रचर) करो ॥१॥

भावार्थ - जैसे जगदीश्वर मनुष्यों को सुखी करता है, वैसे ही आचार्य का भी यह कर्तव्य है कि वह छात्रों को विद्या आदि से पूर्ण करके सुखी करे और उनमें योगाभ्यास आदि की अभिरुचि उत्पन्न करके उन्हें अध्यात्म-मार्ग का पथिक बनाये ॥१॥

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