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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1792
ऋषिः - सुकक्ष आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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त्व꣡ꣳ हि वृ꣢꣯त्रहन्नेषां पा꣣ता꣡ सोमा꣢꣯ना꣣म꣡सि꣢ । उ꣡प꣢ नो꣣ ह꣡रि꣢भिः सु꣣त꣢म् ॥१७९२॥

स्वर सहित पद पाठ

त्वम् । हि । वृ꣣त्रहन् । वृत्र । हन् । एषाम् । पाता꣢ । सो꣡मा꣢꣯नाम् । अ꣡सि꣢꣯ । उ꣡प꣢꣯ । नः꣣ । ह꣡रि꣢꣯भिः । सु꣣त꣢म् ॥१७९२॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वꣳ हि वृत्रहन्नेषां पाता सोमानामसि । उप नो हरिभिः सुतम् ॥१७९२॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । हि । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । एषाम् । पाता । सोमानाम् । असि । उप । नः । हरिभिः । सुतम् ॥१७९२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1792
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
हे (वृत्रहन्) काम, क्रोध आदि छह रिपुओं के और योगमार्ग में आये हुए विघ्नों के विनाशक जीवात्मन् ! (त्वं हि) तू निश्चय ही (एषाम्) इन (सोमानाम्) ज्ञान-रसों और कर्म-रसों का (पाता) पान करनेवाला (असि) है। (नः) हमारे (हरिभिः) मनसहित ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से (सुतम्) उत्पन्न किये गये ज्ञान और कर्म को (उप) समीपता से प्राप्त कर ॥३॥

भावार्थ - जीवात्मा को योग्य है कि वह शुभ ज्ञान और कर्म का सम्पादन करके योग की विधि से परमात्मा के साक्षात्कार द्वारा मोक्ष प्राप्त करे ॥३॥

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