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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1791
ऋषिः - सुकक्ष आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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द्वि꣣ता꣡ यो वृ꣢꣯त्र꣣ह꣡न्त꣢मो वि꣣द꣡ इन्द्रः꣢꣯ श꣣त꣡क्र꣢तुः । उ꣡प꣢ नो꣣ ह꣡रि꣢भिः सु꣣त꣢म् ॥१७९१॥

स्वर सहित पद पाठ

द्वि꣣ता꣢ । यः । वृ꣣त्रह꣡न्त꣢मः । वृ꣣त्र । ह꣡न्त꣢꣯मः । वि꣣दे꣢ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । श꣣त꣡क्र꣢तुः । श꣣त꣢ । क्र꣣तुः । उ꣡प꣢꣯ । नः꣣ । ह꣡रि꣢꣯भिः । सु꣣त꣢म् ॥१७९१॥


स्वर रहित मन्त्र

द्विता यो वृत्रहन्तमो विद इन्द्रः शतक्रतुः । उप नो हरिभिः सुतम् ॥१७९१॥


स्वर रहित पद पाठ

द्विता । यः । वृत्रहन्तमः । वृत्र । हन्तमः । विदे । इन्द्रः । शतक्रतुः । शत । क्रतुः । उप । नः । हरिभिः । सुतम् ॥१७९१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1791
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(यः इन्द्रः) जो जीवात्मा (वृत्रहन्तमः) काम, क्रोध आदि शत्रुओं का तथा व्याधि, स्त्यान आदि योग-विघ्नों का अतिशय विनाशक (शतक्रतुः) और बहुत से यज्ञ करनेवाला, इस प्रकार (द्विता) दो रूपों में (विदे) जाना जाता है, वह (नः) हमारे (हरिभिः) ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से (सुतम्) उत्पन्न किये गये ज्ञान और कर्म को (उप) समीपता से प्राप्त करे ॥२॥

भावार्थ - जीवात्मा के दो प्रकार के कर्म हैं, एक शत्रुओं का वध और दूसरा योग आदि यज्ञ की पूर्ति। उन्हें करने के लिए वह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का उपयोग करके उन्नति के शिखर पर चढ़े ॥२॥

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