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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1799
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
6
न꣢ ते꣣ गि꣢रो꣣ अ꣡पि꣢ मृष्ये तु꣣र꣢स्य꣣ न꣡ सु꣢ष्टु꣣ति꣡म꣢सु꣣꣬र्य꣢꣯स्य वि꣣द्वा꣢न् । स꣡दा꣢ ते꣣ ना꣡म꣢ स्वयशो विवक्मि ॥१७९९॥
स्वर सहित पद पाठन । ते꣣ । गि꣡रः꣢꣯ । अ꣡पि꣢꣯ । मृ꣣ष्ये । तुर꣡स्य꣢ । न । सु꣣ष्टुति꣢म् । सु꣣ । स्तुति꣢म् । अ꣣सुर्य꣢स्य । अ꣣ । सुर्यस्य । वि꣣द्वा꣢न् । स꣡दा꣢꣯ । ते꣣ । ना꣡म꣢꣯ । स्वय꣣शः । स्व । यशः । विवक्मि ॥१७९९॥
स्वर रहित मन्त्र
न ते गिरो अपि मृष्ये तुरस्य न सुष्टुतिमसुर्यस्य विद्वान् । सदा ते नाम स्वयशो विवक्मि ॥१७९९॥
स्वर रहित पद पाठ
न । ते । गिरः । अपि । मृष्ये । तुरस्य । न । सुष्टुतिम् । सु । स्तुतिम् । असुर्यस्य । अ । सुर्यस्य । विद्वान् । सदा । ते । नाम । स्वयशः । स्व । यशः । विवक्मि ॥१७९९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1799
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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विषय - अगले मन्त्र में फिर वही विषय है।
पदार्थ -
हे इन्द्र जगदीश ! (तुरस्य) दोषों के हिंसक (ते) आपकी (गिरः) कर्तव्य का उपदेश करनेवाली वाणियों को, मैं (न अपि मृष्ये) नहीं छोड़ता अर्थात् उनकी उपेक्षा नहीं करता। आपके (असुर्यस्य) बल का (विद्वान्) ज्ञाता मैं (सुष्टुतिम्) आपकी उत्कृष्ट स्तुति को भी (न) नहीं छोड़ता। (सदा) हमेशा (ते) आपके (स्वयशः) निज कीर्तिवाले (नाम) नाम को (विवक्मि) जपता रहता हूँ ॥२॥
भावार्थ - परमेश्वर का नाम स्मरण करने से और उसकी उपासना करने से सब दोष नष्ट हो जाते हैं और सद्गुण, तेज, बल तथा यश प्राप्त होते हैं ॥२॥
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