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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1858
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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उ꣡द्ध꣢र्षय मघव꣣न्ना꣡यु꣢धा꣣न्यु꣡त्सत्व꣢꣯नां माम꣣का꣢नां꣣ म꣡ना꣢ꣳसि । उ꣡द्वृ꣢त्रहन्वा꣣जि꣢नां꣣ वा꣡जि꣢ना꣣न्यु꣡द्रथा꣢꣯नां꣣ ज꣡य꣢तां यन्तु꣣ घो꣡षाः꣢ ॥१८५८॥

स्वर सहित पद पाठ

उ꣢त् । ह꣣र्षय । मघवन् । आ꣡यु꣢꣯धानि । उत् । स꣡त्व꣢꣯नाम् । मा꣣मका꣡ना꣢म् । म꣡ना꣢꣯ꣳसि । उत् । वृ꣣त्रहन् । वृत्र । हन् । वाजि꣡ना꣢म् । वा꣡जि꣢꣯नानि । उत् । र꣡था꣢꣯नाम् । ज꣡य꣢꣯ताम् । य꣣न्तु । घो꣡षाः꣢꣯ ॥१८५८॥


स्वर रहित मन्त्र

उद्धर्षय मघवन्नायुधान्युत्सत्वनां मामकानां मनाꣳसि । उद्वृत्रहन्वाजिनां वाजिनान्युद्रथानां जयतां यन्तु घोषाः ॥१८५८॥


स्वर रहित पद पाठ

उत् । हर्षय । मघवन् । आयुधानि । उत् । सत्वनाम् । मामकानाम् । मनाꣳसि । उत् । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । वाजिनाम् । वाजिनानि । उत् । रथानाम् । जयताम् । यन्तु । घोषाः ॥१८५८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1858
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
हे (मघवन्) शरीर के अधिष्ठाता ऐश्वर्यशाली जीवात्मन् ! (आयुधानि) शस्त्रास्त्रों को (उद्धर्षय) ऊपर उठाओ, (मामकानाम्) मेरे (सत्वनाम्) वीरों के (मनांसि) मनों को (उत्) ऊपर उठाओ, उत्साहित करो। हे (वृत्रहन्) पापहन्ता, विघ्नहन्ता, शत्रुहन्ता जीवात्मन् ! (वाजिनाम्) बलवान् योद्धाओं के (वाजिनानि) रण-कौशल (उद् यन्तु) ऊपर उठें, (जयताम्) विजय-लाभ करते हुए (रथानाम्) रथारोहियों के (घोषाः) विजय-घोष (उद् यन्तु) ऊपर उठें ॥१॥ यहाँ वीर रस है। ‘उद्’ की आवृत्ति में लाटानुप्रास, ‘वाजिनां, वाजिना’ में यमक और यकार, नकार, मकार, तकार का अनुप्रास है ॥१॥

भावार्थ - जो कोई राजा या सेनापति शस्त्रास्त्रों को तेज करता है, अपने पक्ष के वीरों के मनों को उत्साहित करता है, विजय-दुन्दुभि बजाता है, वह सब कार्य उसके शरीर में स्थित जीवात्मा का ही होता है। इसलिए उसी को सम्बोधन किया गया है। आत्मा के उद्बोधन से ही बाह्य विजय के समान ही आन्तरिक विजय भी प्राप्त होती है ॥१॥

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