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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1858
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
39
उ꣡द्ध꣢र्षय मघव꣣न्ना꣡यु꣢धा꣣न्यु꣡त्सत्व꣢꣯नां माम꣣का꣢नां꣣ म꣡ना꣢ꣳसि । उ꣡द्वृ꣢त्रहन्वा꣣जि꣢नां꣣ वा꣡जि꣢ना꣣न्यु꣡द्रथा꣢꣯नां꣣ ज꣡य꣢तां यन्तु꣣ घो꣡षाः꣢ ॥१८५८॥
स्वर सहित पद पाठउ꣢त् । ह꣣र्षय । मघवन् । आ꣡यु꣢꣯धानि । उत् । स꣡त्व꣢꣯नाम् । मा꣣मका꣡ना꣢म् । म꣡ना꣢꣯ꣳसि । उत् । वृ꣣त्रहन् । वृत्र । हन् । वाजि꣡ना꣢म् । वा꣡जि꣢꣯नानि । उत् । र꣡था꣢꣯नाम् । ज꣡य꣢꣯ताम् । य꣣न्तु । घो꣡षाः꣢꣯ ॥१८५८॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्धर्षय मघवन्नायुधान्युत्सत्वनां मामकानां मनाꣳसि । उद्वृत्रहन्वाजिनां वाजिनान्युद्रथानां जयतां यन्तु घोषाः ॥१८५८॥
स्वर रहित पद पाठ
उत् । हर्षय । मघवन् । आयुधानि । उत् । सत्वनाम् । मामकानाम् । मनाꣳसि । उत् । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । वाजिनाम् । वाजिनानि । उत् । रथानाम् । जयताम् । यन्तु । घोषाः ॥१८५८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1858
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में इन्द्र जीवात्मा को प्रोद्बोधन दिया गया है।
पदार्थ
हे (मघवन्) शरीर के अधिष्ठाता ऐश्वर्यशाली जीवात्मन् ! (आयुधानि) शस्त्रास्त्रों को (उद्धर्षय) ऊपर उठाओ, (मामकानाम्) मेरे (सत्वनाम्) वीरों के (मनांसि) मनों को (उत्) ऊपर उठाओ, उत्साहित करो। हे (वृत्रहन्) पापहन्ता, विघ्नहन्ता, शत्रुहन्ता जीवात्मन् ! (वाजिनाम्) बलवान् योद्धाओं के (वाजिनानि) रण-कौशल (उद् यन्तु) ऊपर उठें, (जयताम्) विजय-लाभ करते हुए (रथानाम्) रथारोहियों के (घोषाः) विजय-घोष (उद् यन्तु) ऊपर उठें ॥१॥ यहाँ वीर रस है। ‘उद्’ की आवृत्ति में लाटानुप्रास, ‘वाजिनां, वाजिना’ में यमक और यकार, नकार, मकार, तकार का अनुप्रास है ॥१॥
भावार्थ
जो कोई राजा या सेनापति शस्त्रास्त्रों को तेज करता है, अपने पक्ष के वीरों के मनों को उत्साहित करता है, विजय-दुन्दुभि बजाता है, वह सब कार्य उसके शरीर में स्थित जीवात्मा का ही होता है। इसलिए उसी को सम्बोधन किया गया है। आत्मा के उद्बोधन से ही बाह्य विजय के समान ही आन्तरिक विजय भी प्राप्त होती है ॥१॥
पदार्थ
(वृत्रहन् मघवन्) हे पापनाशक ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू (आयुधानि-उद्-हर्षय) आयु धारण कराने वाले चरित्रों को हमारे अन्दर उच्चरूप से विकसित कर (मामकानां सत्त्वानां मनांसि-उद्) मेरे से सम्बद्धजनों के भी मनों को उच्चरूप से विकसित कर, कल्याण सङ्कल्प वाले बना (वाजिनां वाजिनानिउद्) हम अमृत अन्नभोगी उपासकों के२ वाग्ज्ञेयों—ज्ञानों३ को उच्चरूप से विकसित कर—उन्नत कर (जयतां रथानां घोषाः-उद्यन्तु) कामादि पर जय पाने वाले, परमात्मा में रमण करने वालों के मानसिक जय और सङ्कल्प उन्नत हों॥१॥
विशेष
ऋषिः—प्रजापतिः (इन्द्रियों का स्वामी शरीररथ से उपरत इन्द्र—परमात्मा का उपासक)॥<br>
विषय
आयुधों का उद्धर्षण [ Brightening of the weapons ]
पदार्थ
आयुधों का तेज करना – प्रभु ने जीव को इस जीवन-संग्राम में विजयी बनाने के लिए मुख्यरूप से ‘शरीररूप रथ, इन्द्रियरूप घोड़े तथा मन जिसमें बुद्धि भी सम्मिलित है' ये आयुध प्राप्त कराये हैं। इन शस्त्रों के सदा तीक्ष्ण व कार्यक्षम रहने पर ही विजय प्राप्ति सम्भव है । जिस योद्धा के अस्त्र जङ्ग खा जाते हैं वह कभी विजय प्राप्त नहीं किया करता । प्रस्तुत मन्त्र में प्रभु जीव को ‘मघवन्' विजय व ऐश्वर्य - उच्च ऐश्वर्य प्राप्त करनेवाला तथा 'वृत्रहन्' - वृत्रों ज्ञान पर पर्दा डालनेवाले शत्रुओं को मारनेवाला - इन दो शब्दों से सम्बोधन करते हुए संकेत करते हैं कि यदि तूने सचमुच ऐश्वर्य प्राप्त करना है तो इन वृत्रों का विनाश कर । इनके विनाश के लिए अपने सभी आयुधों को चमकाये रख— इन्हें मलिन न होने दे । प्रभु कहते हैं कि हे (मघवन्) = निष्पाप ऐश्वर्यवाले इन्द्र ! तू आयुधानि=इन शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि आयुधों को (उद्धर्षय) = खूब दीप्त कर । (मामकानाम्) = मेरे भक्त बनकर रहनेवाले, प्रकृति में न उलझनेवाले (सत्वनाम्) = सत्त्वगुणवाले मेरे भक्तों के (मनांसि) = मन [मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार-गौरव की भावना] (उत्) = उत्कृष्ट बनें – दीप्त हों । वस्तुतः मन व अन्त:करण के अच्छा बने रहने का उपाय यही है कि मनुष्य प्रभु-भक्त बनने का प्रयत्न करे । प्रभुभक्ति से सत्त्वगुण की प्रबलता रहती है और सत्त्वगुण का उत्कर्ष मन को मलिन नहीं होने देता ।
इन्द्रियाँ—प्रभु कहते हैं कि हे (वृत्रहन्) = काम का ध्वंस करनेवाले ! (वाजिनाम्) = तेरे इन्द्रियरूप घोड़ों के (वाजिनानि) = वेग (उत्) = उत्कृष्ट हों । काम ही तो सर्वमहान् रुकावट है—‘वृत्र' है । इसके दूर हो जाने पर इन्द्रियरूप घोड़ों की शक्ति व वेग चमक उठता है।
शरीर – शरीर रथ है । यदि यह कभी रोगाक्रान्त नहीं होता, तो यह अवश्य अपनी जीवनयात्रा में आगे और आगे बढ़ता चलता है। प्रभु कहते हैं कि चाहिए तो यही कि (जयताम्) = विजयशील होते हुए (रथानाम्) = शरीररूप रथों के (घोषा:) = विजयघोष (उद्यन्तु) = ऊपर उठें— आकाश को गुँजा दें ।
भावार्थ
जीवन-संग्राम में विजय प्राप्ति के लिए हमारे मन, इन्द्रिय व शरीररूप आयुध खूब दीप्त हों।
विषय
missing
भावार्थ
हे (मघवन्) राजन् ! (आयुधानि) युद्ध के साधनों को (उद् हर्षय) ऊंचा कर। (भामकानां) मेरे सम्बन्धी (सत्वनां) सात्विक वीर, बलवान् पुरुषों के (मनांसि) हृदयों को (उत्) हर्षित करो। हे (वृत्रहन्) दुर्ग को घेरने हारे शत्रु के नाशक राजन् ! सेनापते ! (वाजिनां) ज्ञानी पुरुषों और अश्वों के (वाजिनानि) ज्ञानयुक्त कला कौशलों और वेगों को (उत्) बढ़ाओ और (जयतां रथानां) विजयशील रथों के (घोषाः) नाद (उद्) ऊंचे उठें। इसी प्रकार अध्यात्म पक्ष में—(मघवन् आयुधानि उद् हर्षय) हे परमात्मन् ! या आत्मन् ! हमारी दुष्टवृत्तियों से युद्ध करने के, या उनको प्रहार करके निकाल भगाने के साधनों को उन्नत करो। (मामकानां सत्वनां मनांसि उत्) मेरे निजी बलशाली सात्विक प्राणों को उत्तम बलयुक्त करो। हे वृत्रहन् ! (वाजिनां वाजिनानि उत्) अज्ञान आवरणों के विनाशक प्रकाशस्वरूप आत्मन् ! इन्द्रियों की संविद् शक्तियों को बढ़ाओ। (जयतां रथानां घोषाः, उत्) विजयशील सिद्ध आत्माओं के घोष, वेदपाठ और स्तुतियां भी उच्च स्वर से हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादाविन्द्रो जीवात्मा प्रोद्बोध्यते।
पदार्थः
हे (मघवन्) ऐश्वर्यशालिन् देहाधिष्ठातः जीवात्मन् ! (आयुधानि) शस्त्रास्त्राणि (उद्धर्षय) उत्स्फोरय, (मामकानाम्) मदीयानाम् (सत्वनाम्) वीराणाम् (मनांसि) हृदयानि (उत्) उद्धर्षय उत्स्फोरय उत्साहय। हे (वृत्रहन्) पापहन्तः विघ्नहन्तः शत्रुहन्तः आत्मन् ! (वाजिनाम्) बलवतां योद्धॄणाम् (वाजिनानि) युद्धक्रियाकौशलानि (उद् यन्तु) उद्गच्छन्तु, (जयताम्) विजयं प्राप्नुवताम् (रथानाम्) यानानाम्, लक्षणया यानारोहिणाम् (घोषाः) विजयघोषाः (उद् यन्तु) उद् गच्छन्तु ॥१॥२ अत्र वीरो रसः। उद् इत्यस्यावृत्तौ लाटानुप्रासः। ‘वाजिनां, वाजिना’ इत्यत्र च यमकम्, यकारनकारमकारतकारानुप्रासाः ॥१॥
भावार्थः
योऽयं कश्चिद् राजा वा सेनापतिर्वा शस्त्रास्त्राणि तेजयति, स्वपक्षीयाणां वीराणां मनांस्युत्साहयति, विजयदुन्दुभिं वादयति, तत्सर्वं कृत्यं तद्देहस्थस्य जीवात्मन एव। अतः स एव सम्बोद्ध्यः। आत्मोद्बोधनेनैव बाह्यविजयवदाभ्यन्तरविजयोऽपि प्राप्यते ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O adorable Commander, the slayer of foes, make the weapons of our soldiers flourish, excite the spirits of our warring horses, increase the speed of our horses, and let the din of conquering cars go upward!
Translator Comment
See Yajur 17-42.
Meaning
Indra, Maghavan, lord of glory, ruler of the land, raise, calibrate and sharpen your weapons, raise the mind and morale of my brave warriors, O breaker of the clouds and darkness of evil, raise the calibre and hitting efficiency of the fast moving forces of cavalry, armour and air force, and let the roar of the victorious warriors rise and rumble in space. (Rg. 10-103-10)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (वृत्रः मघवन्) હે પાપનાશક ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું (आयुधानि उद् हर्षय) આયુધ ધારણ કરનારા ચરિત્રોને અમારી અંદર વિકસિત કર. (मामकानां सत्त्वानां मनांसि उद्) મારાથી સંબંધિત જનોના મનોને પણ વિકસિત કર, કલ્યાણ સંકલ્પવાન બનાવ, (वाजिनां वाजिनानि उद्) અમે અમૃત અન્નભોગી ઉપાસકોના વાગ્યેયો-જ્ઞાનોને શ્રેષ્ઠ રૂપ વિકસિત કર-ઉન્નત કર. (जयतां रथानां घोषाः उद्यन्तु) કામાદિ પર વિજય કરનારા; પરમાત્મામાં રમણ કરનારાઓના માનસિક જય અને સંકલ્પ ઉન્નત કરો. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
जो राजा किंवा सेनापती शस्त्रास्त्रांना धारधार करतो, आपल्या पक्षाच्या वीरांना उत्साहित करतो, विजय दुन्दुभी वाजवितो, ते सर्व कार्य त्याच्या शरीरात स्थित जीवात्म्याचेच असते. त्यासाठी त्याला संबोधित केलेले आहे. आत्म्याच्या उद्बोधनाने बाह्य विजयाप्रमाणेच आंतरिक विजयही प्राप्त होतो. ॥१॥
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