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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1859
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    31

    अ꣣स्मा꣢क꣣मि꣢न्द्रः꣣ स꣡मृ꣢तेषु ध्व꣣जे꣢ष्व꣣स्मा꣢कं꣣ या꣡ इष꣢꣯व꣣स्ता꣡ ज꣢यन्तु । अ꣣स्मा꣡कं꣢ वी꣣रा꣡ उत्त꣢꣯रे भवन्त्व꣣स्मा꣡ꣳ उ꣢ देवा अवता꣣ ह꣡वे꣢षु ॥१८५९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣स्मा꣡क꣢म् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । स꣡मृ꣢꣯तेषु । सम् । ऋ꣣तेषु । ध्वजे꣡षु꣢ । अ꣣स्मा꣡क꣢म् । याः । इ꣡ष꣢꣯वः । ताः । ज꣣यन्तु । अस्मा꣡क꣢म् । वी꣣राः꣢ । उ꣡त्त꣢꣯रे । भ꣣वन्तु । अस्मा꣢न् । उ꣡ । देवाः । अवत । ह꣡वे꣢꣯षु ॥१८५९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्माकमिन्द्रः समृतेषु ध्वजेष्वस्माकं या इषवस्ता जयन्तु । अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्वस्माꣳ उ देवा अवता हवेषु ॥१८५९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अस्माकम् । इन्द्रः । समृतेषु । सम् । ऋतेषु । ध्वजेषु । अस्माकम् । याः । इषवः । ताः । जयन्तु । अस्माकम् । वीराः । उत्तरे । भवन्तु । अस्मान् । उ । देवाः । अवत । हवेषु ॥१८५९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1859
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब विजय की प्रार्थना करते हैं।

    पदार्थ

    (अस्माकम् इन्द्रः) हमारा सेनापति-तुल्य जीवात्मा (ध्वजेषु समृतेषु) हमारे ध्वजों के शत्रु-ध्वजों से टकराने पर (जयतु) विजय-लाभ करे। (अस्माकं याः इषवः) हमारे जो बाण हैं,(ताः जयन्तु) वे विजय-लाभ करें। (अस्माकं वीराः) हमारे रण-कुशल वीर योद्धा (उत्तरे भवन्तु) विजयी हों। हे (देवाः) जीतने के अभिलाषी मन, बुद्धि आदियो ! (अस्मान् उ) हमारी (हवेषु) देवासुरसङ्ग्रामों में (अवत) रक्षा करो ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे सेनापति से प्रोद्बोधन पाकर रणबाँकुरे सैनिक शीघ्र ही शत्रुओं को जीत लेते हैं, वैसे ही अपनी अन्तरात्मा को प्रोत्साहन देना वीरों के विजय में हेतु बनता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (इन्द्रः) परमात्मा (अस्माकं समृतेषु ध्वजेषु) हमारे समुद्यत प्रज्ञान४— (याः-इषवः) जो सदिच्छाएँ हैं (जयन्तु) वे समर्थ हों (अस्माकं वीराः) हमारे वीर—प्राण५ (उत्तरे भवन्तु) उत्कृष्ट हों (देवाः-हवेषु-अस्मान्-अवतः) विद्वान् आमन्त्रणों में हमारी रक्षा करो॥२॥

    विशेष

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    विषय

    आस्तिक मनोवृत्ति व विजय

    पदार्थ

    १. प्रस्तुत मन्त्र में चार बातें कही गयी हैं। पहली बात तो यह कि (ध्वजेषु समृतेषु) = ध्वजाओं व पताकाओं को ठीक प्रकार से प्राप्त कर लेने पर (अस्माकम्) = हम आस्तिक बुद्धिवालों का (इन्द्रः) = परमात्मा हो, अर्थात् हम प्रभु को ही अपना आश्रय मानकर चलें। ‘ध्वजा' एक लक्ष्य का प्रतीक है। जब हम एक लक्ष्य बना लें तब प्रभु को अपना आश्रय बनाकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति में जुट जाएँ। वस्तुतः संसार में प्रभु का आश्रय मनुष्य को कभी निरुत्साहित नहीं होने देता । आस्तिक मनुष्य प्रभु को सदा अपनाता है और किसी प्रकार से निरुत्साहित न हो अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता चलता है।

    २. प्रभु से दूसरी प्रार्थना यह है कि (अस्माकम्) = हम आस्तिक वृत्तिवालों की (या:) = जो (इषवः) = प्रेरणाएँ हैं—अन्त:स्थित प्रभु से दिये जा रहे निर्देश हैं (ता:) = वे निर्देश और प्रेरणाएँ ही (जयन्तु) = जीतें । प्रभु की प्रेरणा होती है कि 'उषाकाल हो गया, उठ बैठ । क्यों सो रहा है ?' उसी समय एक इच्छा पैदा होती है कि कितनी मधुर वायु चल रही है, रात को नींद भी तो पूरी नहीं आई, दिन में सुस्ताते रहोगे, थोड़ा और सो ही लो । सामान्यतः यह इच्छा उस प्रेरणा को दबा देती है और व्यक्ति सोया रह जाता है । इसी को हम वैदिक शब्दों में इस रूप में भी कहते हैं कि दैवी प्रेरणा को आसुर कामना दबा लेती है। हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हमारी प्रेरणाएँ ही विजयी हों - इच्छाएँ नहीं । =

    ३. तीसरी प्रार्थना यह है कि (अस्माकम्) = हम आस्तिक वृत्तिवालों में (वीराः) = वीरता की भावनाएँ न कि कायरता की प्रवृत्ति (उत्तरे भवन्तु) = उत्कृष्ट हों – प्रबल हों। हम कायरता से कोई कार्य न करें । दबकर कार्य करना मनुष्यत्व से गिरना है। हमारे कार्य वीरता का परिचय दें।

    ४. हे (देवाः) = देवो! (अस्मान्) = हम आस्तिकों को (आहवेषु) = इन संग्रामों में (उ) = निश्चय से (अवत) = रक्षित करो। देव हमारे रक्षक हों । जब हम प्रभु में पूर्ण आस्था से चलेंगे, जब हम सदा अन्तःस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनेंगे, जब हम सदा वीरता के कार्य ही करेंगे तो क्यों देवताओं की रक्षा के पात्र न होंगे । जब मनुष्य अपनी वृत्ति को अच्छा बनाता है और पुरुषार्थ में किसी प्रकार की कमी नहीं आने देता तब वह देवों की रक्षा का पात्र होता है।

    भावार्थ

    १. जीवन-लक्ष्य को ओझल न होने देते हुए हम प्रभु को अपना आश्रय समझें, २. हममें प्रेरणा की विजय हो न कि इच्छा की, ३. हम सदा वीरतापूर्ण कार्य करें और ४. हम सदा अध्यात्म-संग्रामों में देवों की रक्षा के पात्र हों ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (इन्द्रः) राजा (अस्माकं ध्वजेषु समृतेषु) हमारे झण्डे जब शत्रुओं के झण्डों में जा मिलें तब भी हमारी रक्षा करें। (अस्माकं याः इषवः ता जयन्तु) हमारे जो बाण हैं वे ही विजयशील हों। (अस्माकं वीराः, उत्तरे भवन्तु) हमारे वीर उत्कृष्ट बलशाली विजयी रहें। (देवाः हवेषु अस्मान् उ भवन्तु) देव=दिव्य शस्त्रधारी विद्वान् सेनापतिगण युद्धों में भी हमारी रक्षा करें। अध्यात्मपक्ष में—(इन्द्रः) आत्मा (अस्माकं) हमारे (ध्वजेषु) प्राणों के (समृतेषु) परस्पर संगत हो जाने पर रक्षा करें, (याः) जो (इषवः) मानसवृत्तियां हैं (ताः) वे (जयन्तु) बलवान् हो। (अस्माकं वीराः) हमारे प्राणरूप बलशाली योद्धा (उत्तरे) उत्कृष्टतर होकर रहें। (देवाः) विद्वान् लोग या इन्द्रिय शक्तियां (हवेषु) ईश्वर की उपासना के अवसरों में (अस्मान्) हमें (अवन्तु) बुरे मार्ग में जाने से बचायें।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विजयः प्रार्थ्यते।

    पदार्थः

    (अस्माकम् इन्द्रः) अस्मदीयः सेनापतिरिव जीवात्मा (ध्वजेषु समृतेषु२) पताकासु शत्रुपताकाभिः सह संगतासु सतीषु [जयतु] विजयं लभताम्। (अस्माकम् या इषवः) आस्माकीनाः याः बाणपङ्क्तयः (ताः जयन्तु) ताः विजयं लभन्ताम्। (अस्माकं वीराः) अस्मदीया रणकुशलाः शूरा योद्धारः (उत्तरे भवन्तु) विजयिनः सन्तु। हे (देवाः) विजिगीषवो मनोबुद्ध्यादयः ! (अस्मान् उ) अस्मान् खलु (हवेषु३) देवासुरसङ्ग्रामेषु (अवत) रक्षत ॥२॥४

    भावार्थः

    यथा सेनापतेः सकाशात् प्रोद्बोधनं प्राप्य रणोद्भटाः सैनिकाः सत्वरं शत्रून् विजयन्ते, तथैव स्वान्तरात्मनः प्रोत्साहनं वीराणां विजयहेतुर्जायते ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May the Commander of the army aid us when our flags reach the enemy’s forces. Victorious be the arrows of our army. May our brave men of war prevail in battle. May learned persons protect us at the time of war!

    Translator Comment

    See Yajur 17-43.

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    Meaning

    In international gatherings, let Indra, our leader, raise our flag high in the flag lines, may our shots of arrows hit the targets and win the battles, let our brave progeny and our brave warriors be higher than others in excellence, and may the divinities protect us in the call to action in the battle field. (Rg. 10-103-11)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्रः) પરમાત્મા (अस्माकं समृतेषु ध्वजेषु) અમારું સારી રીતે ઉદ્યમ પ્રજ્ઞાન, (याः इषवः) જે સદ્ ઇચ્છાઓ છે, (जयन्तु) તે સમર્થ બને. (अस्माकं वीराः) અમારા વીર-પ્રાણ (उत्तरे भवन्तु) ઉત્કૃષ્ટ બને (देवाः हवेषु अस्मान् अवतः) વિદ્વાન આમંત્રણોમાં અમારી રક્ષા કરો. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे सेनापतीकडून उद्बोधन प्राप्त करून योद्धे सैनिक ताबडतोब शत्रूंना जिंकतात, तसेच आपल्या अंतरात्म्याला प्रोत्साहन देणे हे वीरांच्या विजय प्राप्तीचे प्रयोजन असते. ॥२॥

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