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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1860
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः
देवता - मरुतः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
27
अ꣣सौ꣡ या सेना꣢꣯ मरुतः꣣ प꣡रे꣢षाम꣣भ्ये꣡ति꣢ न꣣ ओ꣡ज꣢सा꣣ स्प꣡र्ध꣢माना । तां꣡ गू꣢हत꣣ त꣢म꣣सा꣡प꣢व्रतेन꣣ य꣢थै꣣ते꣡षा꣢म꣣न्यो꣢ अ꣣न्यं꣢꣫ न जा꣣ना꣢त् ॥१८६०॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣सौ꣢ । या । से꣡ना꣢꣯ । म꣣रुतः । प꣡रे꣢꣯षाम् । अ꣣भ्ये꣡ति꣢ । अ꣣भि । ए꣡ति꣢꣯ । नः꣣ । ओ꣡ज꣢꣯सा । स्प꣡र्ध꣢꣯माना । ताम् । गू꣣हत । त꣡म꣢꣯सा । अ꣡प꣢꣯व्रतेन । अ꣡प꣢꣯ । व्र꣣तेन । य꣡था꣢꣯ । ए꣣ते꣡षा꣢म् । अ꣣न्यः꣢ । अ꣣न् । यः꣢ । अ꣣न्य꣢म् । अ꣣न् । य꣢म् । न । जा꣣ना꣢त् ॥१८६०॥
स्वर रहित मन्त्र
असौ या सेना मरुतः परेषामभ्येति न ओजसा स्पर्धमाना । तां गूहत तमसापव्रतेन यथैतेषामन्यो अन्यं न जानात् ॥१८६०॥
स्वर रहित पद पाठ
असौ । या । सेना । मरुतः । परेषाम् । अभ्येति । अभि । एति । नः । ओजसा । स्पर्धमाना । ताम् । गूहत । तमसा । अपव्रतेन । अप । व्रतेन । यथा । एतेषाम् । अन्यः । अन् । यः । अन्यम् । अन् । यम् । न । जानात् ॥१८६०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1860
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में शत्रुओं को मोह में डालने की प्रेरणा दी गयी है।
पदार्थ
हे (मरुतः) प्राणो वा वीर सैनिको ! (असौ या) यह जो (ओजसा) अपने बल से (स्पर्धमाना) हमसे स्पर्धा करती हुई (परेषाम्) शत्रुओं की (सेना) सेना (नः अभ्येति) हमारी ओर बढ़ी आ रही है, (ताम्) उस सेना को (अपव्रतेन) जिसमें कार्य बन्द हो जाते हैं, ऐसे (तमसा) अन्धकार से (गूहत) आच्छन्न कर दो, (यथा) जिससे (एतेषाम्) इनमें (अन्यः) एक (अन्यम्) दूसरे को (न जानात्) न जान सके ॥३॥
भावार्थ
जैसे युद्ध में सम्मोहनास्त्र के प्रयोग द्वारा घोर अन्धकार के व्याप्त हो जाने पर शत्रु एक-दूसरे को ही नहीं देख पाते, वैसे ही जीवात्मा के प्राणायाम द्वारा प्रयुक्त सम्मोहन से सभी आन्तरिक काम-क्रोध आदि वा अविद्या-अस्मिता आदि शत्रु सर्वथा मोह को प्राप्त हो जाएँ ॥३॥
पदार्थ
(मरुतः) हे पापमारक ओज वीर्य साहस गुणों६ (परेषां या-असौ सेना) उपासकजनों से भिन्न नास्तिक दुष्टजनों की जो वह सेना—इन्हें बान्धने वाली काम आदि प्रवृत्तियाँ (नः-अभि-ओजसा स्पर्द्धमाना एति) हमारे अन्दर भी स्पर्द्धा से वेग से आती हैं तो (ताम्) उसे (अपव्रतेन तमसा) निष्कर्म—निष्फल-निर्बल कर देने वाले कांक्षाभाव सङ्कल्प से (गूहत) लुप्त कर दो (यथा) जिसे (एषाम्) इनमें से (अन्यः-अन्यं न जानात्) एक दूसरे को न जान सके परस्पर बल पाकर न उभर सके॥३॥
विशेष
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विषय
कामादि की सेना मूर्च्छित हो जाए
पदार्थ
जब हमपर काम-क्रोधादि अशुभ वासनारूप शत्रु आक्रमण करते हैं, तब कभी काम प्रबल होता है तो कभी क्रोध और कभी लोभ । इस प्रकार परस्पर स्पर्धा-सी करते हुए ये अधिकाधिक उग्र होते जाते हैं । मन्त्र में कहते हैं कि (असौ) = वह (या) = जो (परेषाम्) = पराये, अर्थात् शत्रुभूत कामादि की (सेना) = फ़ौज (स्पर्धमाना) = परस्पर स्पर्धा-सी करती हुई (नः ओजसा अभ्येति) = हमारी ओर प्रबलता से आती है—हमपर आक्रमण-सा करती है (ताम्) = उस शत्रु-सैन्य को (तमसा) = अन्धकार से गूहत= संवृत कर दो। हम कामादि को त्यागनेवाले बनें । मन्त्र में तमस् का विशेषण ‘अप-व्रतने' दिया है—उसकी भावना ‘न करने के व्रत से' है [अप=away]। हम प्रतिदिन व्रत लें कि 'मैं क्रोध नहीं
करूँगा, काम में न फसूँगा, लोभ से दूर रहूँगा'। यह कामादि से दूर रहने का व्रत ही 'अपव्रत' है। यही तमस्=इनके छोड़ने की प्रबल इच्छा है [तम्=to desire]।‘तम' में अक्रियाशीलता की भी भावना है—कामादि के विषय में मैं अक्रिय बन जाऊँ। मैं इनको इस प्रकार अपने से दूर भगा दूँ (यथा) = जैसे (एतेषाम्) = इनमें से (अन्यः) = एक (अन्यम्) = दूसरे को (न) = नहीं (जानात्) = अनुज्ञात कर सके - अनुगृहीत कर सके।
कामादि का यह स्वभाव है कि ये एक-दूसरे के लिए सहायक होते हैं । 'लोभ' काम को जन्म देता है तो 'काम' क्रोध को पैदा करता है । मैं इनको इस प्रकार छोड़ने का - दूर भगाने का – व्रत लूँ, जिससे इनमें ऐसी भगदड़ मच जाए कि ये अपनी-अपनी रक्षा की चिन्ता में भाग खड़े हों । एक-दूसरे के लिए किसी भी प्रकार से सहायक न हो पाएँ । शत्रु- सैन्य को परेशान करने का उपाय अपव्रत' ही है—इनको न करने का दृढ़ निश्चय ही है ।
भावार्थ
हम कामादि को अपने जीवन में स्थान न देने का दृढ़ निश्चय करें और इस प्रकार बड़े ओज से – बड़ी प्रबलता से - आक्रमण करती हुई इस शत्रु सेना का संहार कर दें ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (मरुतः) वायु के समान वेगवान् वीरो या मारनेहारी विषैली गैसो ! (असौ या परेषां सेना) यह जो शत्रुओं की सेना (नः ओजसा स्पर्धमाना) बल से हमारे साथ स्पर्धा करती हुई (अभ्येति) हमारी तरफ़ बढ़ती चली आ रही है (तां) उसका (अपव्रतेन तमसा गृहत) क्रियाशक्ति को नष्ट करनेहारे तम या मूर्छा से ढक दो (यथा अमी अन्यो अन्यं न जानान्) जिससे वे एक दूसरे को न पहचान सकें, इसी प्रकार अध्यात्मपक्ष में—हे (मरुतः) प्राणो ! (असौ) यह (या) जो (सेना) मोहादि वृत्तियों की परम्परा (परेषां) प्रलोभनों की अपने आत्मा से अतिरिक्त अन्य अनात्म पदार्थों का (ओजसा) आत्मा के बल से प्रतिस्पर्द्धा करती हुई, उसके बल या तेज पर आवरण डालती दुई (अभ्यैति) साक्षात् आरही है और मुग्ध कर रही है (तां) उसको (व्रतेन) कर्म और ज्ञान के दृढ़ संकल्प द्वारा (तमसा) उसको शिथिल कर डालने वाले बल से (अप गूहत) दूर करदो। (यथा) जिससे (अन्यः) एक अनात्मभाव (अन्यं) दूसरे भाव को (न जानात्) न उत्पन्न करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शत्रुमोहनाय प्रेरयति।
पदार्थः
हे (मरुतः) प्राणाः वीराः सैनिका वा ! (असौ या) एषा या (ओजसा) बलेन (स्पर्धमाना) स्पर्धां कुर्वती (परेषाम्) शत्रूणाम् (सेना) पृतना (नः अभ्येति) अस्मान् प्रत्यागच्छति, (ताम्) सेनाम् (अपव्रतेन) अपगतानि व्रतानि कर्माणि यस्मिंस्तेन (तमसा) अन्धकारेण (गूहत) आच्छादयत। [गुहू संवरणे, भ्वादिः, गुणाभावश्छान्दसः।] (यथा) येन प्रकारेण (एतेषाम्) एषां शत्रूणां मध्ये (अन्यः) एकः (अन्यम्) अपरम् (न जानात्) न जानाति। [ज्ञा अवबोधने धातोर्लेटि रूपम्] ॥३॥२
भावार्थः
यथा युद्धे संमोहनास्त्रप्रयोगेण घने तमसि बाह्याः शत्रवोऽन्योन्यमेव न द्रष्टुं प्रभवन्ति तथैव जीवात्मना प्राणायामद्वारा प्रयुक्तेन संमोहनेनाभ्यन्तराः सर्वेऽपि कामक्रोधादयोऽविद्याऽस्मितादयो वा शत्रवः सर्वथा मुह्येरन् ॥३॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O learned persons meet Ye the army of our enemies, that domes against us in a jealous mood, with its might, and enwrap it harshly in the darkness of the smoke arising out of the use of guns, so that they may not recognise one another!
Translator Comment
See Yajur 17-47. Darkness: the use of fiery weapons produces smoke, that envelops the enemy’s forces, and being blinded, one soldier cannot recognise the other. It may also refer to the use of gases which darken the eyes of the soldiers.
Meaning
O Maruts, stormy commandos of the defence force, see that army of the aliens comes advancing upon us with their mighty force, cover it with deep paralyzing darkness so that none of them could know and distinguish one from another. (Atharva, 3, 2, 6)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (मरुतः) હે પાપમારક ! ઓજવીર્ય સાહસ ગુણો (परेषां या असौ सेना) ઉપાસક-જનોથી ભિન્ન નાસ્તિક દુષ્ટજનોની જે તે સેના-તેને બાંધનારી કામ આદિ પ્રવૃત્તિઓ (नः अभि ओजसा स्पर्द्धमाना एति) અમારી અંદર પણ સ્પર્ધાના વેગથી આવે છે, ત્યારે (ताम्) તેને (अपव्रतेन तमसा) નિષ્કર્મ-નિષ્ફળ-નિર્બળ કરી નાખનારી આકાંક્ષાભાવ સંકલ્પથી (गूहत) લુપ્ત કરી દો-ઢાંકી દો, (यथा) જેમ (एषाम्) એમાંથી (अन्यः अन्यं न जानात्) એક બીજાને જાણી ન શકે, પરસ્પર બળ પ્રાપ્ત કરીને ન ઉપસી શકે, તેમ કરો. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
जसे युद्धात संमोहनास्त्राच्या प्रयोगाद्वारे भयंकर अंधार व्याप्त झाल्यावर शत्रू एकमेकांना पाहू शकत नाहीत, तसेच जीवात्म्याच्या प्राणायामाद्वारे प्रयुक्त समोहनाने सर्व आंतरिक काम, क्रोध इत्यादी किंवा अविद्या-अस्मिता इत्यादी शत्रू अत्यंत मूर्छित व्हावे. ॥३॥
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