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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1861
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः
देवता - अप्वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
34
अ꣣मी꣡षां꣢ चि꣣त्तं꣡ प्र꣢तिलो꣣भ꣡य꣢न्ती गृहा꣣णा꣡ङ्गा꣢न्यप्वे꣣ प꣡रे꣢हि । अ꣣भि꣢꣫ प्रेहि꣣ नि꣡र्द꣢ह हृ꣣त्सु꣡ शोकै꣢꣯र꣣न्धे꣢ना꣣मि꣢त्रा꣣स्त꣡म꣢सा सचन्ताम् ॥१८६१॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣मी꣡षा꣢म् । चि꣣त्त꣢म् । प्र꣣तिलोभ꣡य꣢न्ती । प्र꣣ति । लोभ꣡य꣢न्ती । गृ꣣हाण꣢ । अ꣡ङ्गा꣢꣯नि । अ꣣प्वे । प꣡रा꣢꣯ । इ꣣हि । अभि꣢ । प्र । इ꣣हि । निः꣢ । द꣣ह । हृत्सु꣢ । शो꣡कैः꣢꣯ । अ꣣न्धे꣡न꣢ । अ꣣मि꣡त्राः꣢ । अ꣣ । मि꣡त्राः꣢꣯ । त꣡म꣢꣯सा । स꣣चन्ताम् ॥१८६१॥
स्वर रहित मन्त्र
अमीषां चित्तं प्रतिलोभयन्ती गृहाणाङ्गान्यप्वे परेहि । अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैरन्धेनामित्रास्तमसा सचन्ताम् ॥१८६१॥
स्वर रहित पद पाठ
अमीषाम् । चित्तम् । प्रतिलोभयन्ती । प्रति । लोभयन्ती । गृहाण । अङ्गानि । अप्वे । परा । इहि । अभि । प्र । इहि । निः । दह । हृत्सु । शोकैः । अन्धेन । अमित्राः । अ । मित्राः । तमसा । सचन्ताम् ॥१८६१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1861
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में शत्रुओं को व्याधि वा भय से पीड़ित करने का वर्णन है।
पदार्थ
हे (अप्वे) व्याधि वा भीति ! (परेहि) शत्रुदल में जा। (अमीषाम्) इन शत्रुओं के (चित्तम्) चित्त को (मोहयन्ती) मोहित करती हुई (अङ्गानि) इनके अङ्गों को (गृहाण) जकड़ दे। (अभिप्रेहि) शत्रुओं के प्रति जा, उनके (हृत्सु) हृदयों में (शोकैः) शोकों से (निर्दह) दाह उत्पन्न कर दे। (अमित्राः) शत्रु (अन्धेन) घने (तमसा) मोह के अन्धकार से (सचन्ताम्) संयुक्त हो जाएँ ॥१॥
भावार्थ
जैसे व्याधि वा भय से ग्रस्त शत्रु किंकर्तव्यविमूढ़ और दग्ध हृदयवाले होकर पराजित हो जाते हैं वैसे ही आन्तरिक देवासुरसङ्ग्राम में काम-क्रोध-लोभ-मोह आदि वा व्याधि स्त्यान-संशय-प्रमाद-आलस्य आदि रिपु व्याधि-ग्रस्त वा भयोद्विग्न से होकर झट विनष्ट हो जाएँ ॥१॥
पदार्थ
(अप्वे) हे भयप्रद परमात्मशक्ति! तू (अमीषां चित्तम्) उन काम आदि शत्रुओं के चित्त को—क्रियाशक्ति को (प्रति लोभयन्ती परेहि) घबराहट देती हुई जा (अङ्गानि गृहाण) उनके अवयवों—पूर्वरूपों को पकड़ (अभिप्रेहि) सामने जा (शोकैः-हृत्सु निर्दह) सन्तापों से हृदयों में—हृदयों को भस्म कर (अमित्राः) काम आदि शत्रु (अन्धेन तमसा) घने अन्धकार से (सचन्ताम्) युक्त हो जावे॥१॥
विशेष
ऋषिः—प्रजापतिः (इन्द्रियों का स्वामी शरीररथ से उपरत इन्द्र—परमात्मा का उपासक)॥ देवता—अप्वा (भीति भयप्रद परमात्मशक्ति)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>
विषय
लोभ [Desire of attainment ] का परिणाम
पदार्थ
लोभ की प्रवृत्ति बड़ी विचित्र है । १. यह कम-से-कम प्रयत्न से अधिक-से-अधिक लेना चाहती है । २. यह प्रवृत्ति आवश्यकता को नहीं देखती । इसमें धन के प्रति लोभ [लुभ=Love]— एक प्रेम-सा होता है, जिसके कारण एक लोभी किसी अन्य बन्धु-बान्धव या प्राणी से प्रेम नहीं कर पाता। ३. इतना ही नहीं यह किसी अन्य की सम्पत्ति को देखकर जलता है——इसके हृदय में उनके प्रति स्नेह न रहे', यही नहीं; यह उनके प्रति 'दुर्हद्-अमित्र' हो जाता है और उनको नष्ट करने का प्रयत्न करता है, या स्वयं ही उस ईर्ष्याग्नि में जलता रहता है । एवं, लोभ ईर्ष्याजनक होता है। मन्त्र में कहते हैं कि (अप्वे) = हे [आप्=प्राप्त करना] अधिक और अधिक धन को प्राप्त करने की इच्छा ! तू (अमीषाम्) = इन तेरे शिकार बने हुए लोगों के (चित्तम्) = चित्त को (प्रतिलोभयन्ती) = प्रत्येक ऐश्वर्य के प्रति लुब्ध करती हुई (अङ्गानि गृहाण) = इनके अङ्गों को जकड़ ले – इनको अपने वश में कर ले। लोभाविष्ट हुआ हुआ मनुष्य इस प्रकार धन का दास बन जाता है कि उसको धनके अतिरिक्त कुछ भी नहीं सूझता । वह धन के लिए अपने आराम को समाप्त कर देता है—वह धन के लिए अपने बन्धुत्व की बलि दे देता है - आत्मा-परमात्मा के स्मरण का तो प्रश्न ही नहीं रहता । एक ही शब्द उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग से सुनाई पड़ता है— धन-धन और धन | (परा इहि) = हे अप्वे! तू हमसे परे जा—हमारा पीछा छोड़। जो (अमित्रा:) = किसी से स्नेह न करनेवाले लोग हैं उनका (अभिप्र-इहि) = लक्ष्य करके खूब गतिशील हो, अर्थात् उन्हें तू प्राप्त कर । उन्हें ही तू (हृत्सु) = हृदयों में (शौकेः) = शोकाग्नियों से (निर्दह) = नितरां जलानेवाली बन । लोभी व ईर्ष्यालु पुरुषों के ही मन जलते रहें । हमपर तो तू कृपा कर, हमसे दूर रह और हमें जलानेवाली न हो ।
ये (अमित्रा:) = प्राणियों के प्रति स्नेहशून्य हृदयवाले लोग ही (अन्धेन तमसा) = इस अन्धी इच्छा से [तमस्=Desire] (सचताम्) = संयुक्त हों । यह इच्छा अन्धी तो है ही। साध्य व साधन Ends व means का विचार न करती हुई यह साधन को ही साध्य समझ लेती है और परिणामत: धन की ही उपासक हो जाती है। धन की देवता भग तो अन्धी है – ये भी धन के पीछे अन्धे हो जाते हैं। अच्छा यही है कि इस अन्धी इच्छा से मुक्त होकर हम ‘चक्षुष्मान्' बने रहें - अपने लक्ष्य को पहचानें और उसे प्राप्त करने के लिए अग्रसर हों । हे अप्वे ! धनाहरणाभिलाषे! तू (परेहि) = कृपया हमसे परे ही रह ।
भावार्थ
हम लोभ की भावना से ऊपर उठें, जिससे हृदयों में शोकाग्नि से सन्तप्त न होते रहें ।
विषय
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भावार्थ
(अमीषां) इन शत्रुओं के (चित्त) चित को (प्रति लोभयन्ती) विमोहित करती हुई हे (अप्वे) पापप्रवृत्ते ! व्याधे ! या हे भीति ! (अङ्गानि) उनके अंङ्गों को (गृहाण) पकड़ ले अर्थात् उनके शरीरों का नाश कर दे। (अभिप्रेहि) उनतक पहुंच और (हत्सु) हृदयों में प्रवेश करके उनको (शोकैः) शोकों द्वारा (निर्दह) जला। (अमित्राः) शत्रुगण (अन्धेन तमसा) अन्धकारमय मोह से (सचन्ताम्) युक्त हो जायं। अध्यात्मपक्ष में—हे पापप्रवृत्ते ! (अप्वे) सन्मार्ग से दूर हटाने वाली (अमीषां) इन हमारे प्राणों के (चित्तं) चेतन सामर्थ्य को (प्रतिलोभयन्ती) प्रलोभन करती हुई तू (अंगानि) हमारे अंगों, शरीरों को (गृहाण) ग्रहण करती है। अतः (परेहि) तू दूर हट जा। और तू स्नेह न करने हारे, द्वेष करने वाले पुरुषों के पास (अभिप्रेहि) जाती है और उनको (शोकैः) शोकों द्वारा (हृत्सु) हृदयों में (निर्दह) दाह उत्पन्न करती है, इसलिये (अमित्राः) द्वेषभावों से युक्त पुरुष ही (अन्धेन तमसा) अन्धकार भरे मोह से (सचन्ताम्) घिर जाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ शत्रून् व्याधिना भयेन वा पीडितान् कर्तुमाह।
पदार्थः
हे (अप्वे) व्याधे भीते वा ! [अप्वा यदेनया विद्धोऽपवीयते, व्याधिर्वा भयं वा। निरु० ६।१२।] (परेहि) शत्रुदलं गच्छ। (अमीषाम्) एषां शत्रूणाम् (चित्तम्) संज्ञानम् (प्रतिलोभयन्ती) मोहयन्ती (अङ्गानि) एषां शरीरावयवान् (गृहाण) बधान। (अभि प्रेहि) शत्रून् प्रति गच्छ, तान् (हृत्सु) हृदयेषु (शोकैः) पीडाभिः (निर्दह) दाहमुत्पादय। (अमित्राः) शत्रवः (अन्धेन) गाढेन (तमसा) मोहान्धकारेण (सचन्ताम्) संयुज्यन्ताम् ॥१॥२ यास्काचार्यो मन्त्रमिममेवं व्याख्यातवान्—[अमीषां चित्तानि प्रज्ञानानि प्रतिलोभयमाना गृहाणाङ्गानि, अप्वे परेहि। अभि प्रेहि, निर्दहैषां हृदयानि शोकैरन्धेनामित्रास्तमसा संसेव्यन्ताम् (निरु० ९।३२) इति]।
भावार्थः
यथा व्याधिना भयेन वा ग्रस्ताः शत्रवः किंकर्तव्यविमूढा दग्धहृदयाश्च सन्तः पराजीयन्ते तथैवाभ्यन्तरे देवासुरसंग्रामे कामक्रोधलोभमोहादयो व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्यादयो वा रिपवो व्याधिग्रस्ता इव भयोद्विग्ना इव झटिति विनश्यन्ताम् ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
0 queen, the slayer of foes, organise the bands of thy army, that bewilders the hearts of the forces of the enemy, remain aloof from sin, convey thy aim to thy soldiers, bum down the foes, whereby they may abide mutter darkness with hearts full of griefs!
Translator Comment
See Yajur 17-44.^Apva: According to Sayana, a female deity who presides over sin; according to Mahidhar, sickness or fear. According to Swami Dayananda, it means the queen who leads the army of women and kills the foes. This verse advocates the formation of the army of women.
Meaning
Get off schizophrenia, that torment the heart and delude their mind, depart, ill health, that afflict and disable the body system of those who are children of light. Go forward, be there and burn with pain in the heart of those who are negative souls and love to abide with darkness of mind and sloth of body with suffering and unfriendliness as their food of life. (Rg. 10-103-12)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अप्वे) હે ભયપ્રદ પરમાત્મશક્તિ ! તું (अमीषां चित्तम्) તે કામ આદિ શત્રુઓનાં ચિત્તને ક્રિયાશક્તિને (प्रति लोभयन्ती परेहि) ગભરાવતી જા. (अङ्गानि गृहाण) તેના અવયવો-પૂર્વરૂપોને પકડ (अभिप्रेहि) સામે જા. (शोकैः हृत्सु निर्दह) સંતાપોથી હૃદયોમાં-હૃદયોને ભસ્મ કર-બાળી નાખ. (अमित्राः) કામ આદિ શત્રુ (अन्धेन तमसा) ગાઢ અંધકારમાં (सचन्ताम्) સપડાઈ જાય. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
जसे व्याधी किंवा भयाने ग्रस्त शत्रू किंकर्तव्यविमूढ व दग्ध हृदयाचे बनून पराजित होतात, तसेच आंतरिक देवासुर संग्रामात काम-क्रोध-लोभ-मोह इत्यादी रिपू व्याधिग्रस्त किंवा भयाने उद्विग्न होऊन तात्काळ नष्ट होतात. ॥१॥
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