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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1866
ऋषिः - पायुर्भारद्वाजः
देवता - संग्रामशिषः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
5
य꣡त्र꣢ बा꣣णाः꣢ स꣣म्प꣡त꣢न्ति कुमा꣣रा꣡ वि꣢शि꣣खा꣡ इ꣢व । त꣡त्र꣢ नो꣣ ब्र꣡ह्म꣢ण꣣स्प꣢ति꣣र꣡दि꣢तिः꣣ श꣡र्म꣢ यच्छतु वि꣣श्वा꣢हा꣣ श꣡र्म꣢ यच्छतु ॥१८६६॥
स्वर सहित पद पाठय꣡त्र꣢꣯ । बा꣣णाः꣢ । सं꣣प꣡त꣢न्ति । स꣣म् । प꣡त꣢꣯न्ति । कु꣣माराः꣢ । वि꣣शिखाः꣢ । वि꣣ । शिखाः꣢ । इ꣣व । त꣡त्र꣢꣯ । नः꣣ । ब्र꣡ह्म꣢꣯णः । प꣡तिः꣢꣯ । अ꣡दि꣢꣯तिः । अ । दि꣣तिः । श꣡र्म꣢꣯ । य꣢च्छतु । विश्वा꣡हा꣢ । श꣡र्म꣢꣯ । य꣣च्छतु ॥१८६६॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्र बाणाः सम्पतन्ति कुमारा विशिखा इव । तत्र नो ब्रह्मणस्पतिरदितिः शर्म यच्छतु विश्वाहा शर्म यच्छतु ॥१८६६॥
स्वर रहित पद पाठ
यत्र । बाणाः । संपतन्ति । सम् । पतन्ति । कुमाराः । विशिखाः । वि । शिखाः । इव । तत्र । नः । ब्रह्मणः । पतिः । अदितिः । अ । दितिः । शर्म । यच्छतु । विश्वाहा । शर्म । यच्छतु ॥१८६६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1866
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
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विषय - अगले मन्त्र में युद्ध में विजय की प्रार्थना है।
पदार्थ -
(यत्र) जिस समराङ्गण में (बाणाः) बाण आदि अस्त्र (सम्पतन्ति) गिरते हैं, (विशिखाः कुमाराः इव) जैसे चूड़ाकर्म संस्कार कराये हुए शिखा-रहित बालक चलने का अभ्यास करते हुए पग-पग पर गिरते हैं, (तत्र) उस समराङ्गण में (ब्रह्मणः पतिः) ज्ञान का रक्षक जीवात्मा और महान् राष्ट्र का रक्षक सेनापति तथा (अदितिः) कुतर्कों से खण्डित न होनेवाली बुद्धि और राष्ट्रभूमि (नः) हमें (शर्म) कल्याण (यच्छतु) प्रदान करे, (विश्वाहा) सदा (शर्म) कल्याण (यच्छतु) प्रदान करे। [निरुक्त्त (१०।४०) में कहा गया है कि किसी वाक्य को दोहराने में बहुत सा चमत्कारिक अर्थ प्रकट होता है। जैसे-‘अहो, दर्शनीय है, अहो दर्शनीय है’, इस वाक्य में। उसी के अनुसार यहाँ ‘शर्म यच्छतु’ वाक्य को दुहराने में बहुत-सा अर्थ समाविष्ट है।] ॥३॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ - बाह्य सङ्ग्राम में सेनापति प्रतिपक्षी योद्धाओं को तेज बाणों से काट कर अपने पक्षवालों जैसे को सुख देवे, वैसे ही आध्यात्मिक देवासुरसङ्ग्राम में जीवात्मा काम-क्रोध आदि रिपुओं का छेदन-भेदन करके मनोभूमि को शत्रु-रहित करे ॥३॥
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