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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1870
ऋषिः - पायुर्भारद्वाजः
देवता - संग्रामशिषः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
5
म꣡र्मा꣢णि ते꣣ व꣡र्म꣢णा च्छादयामि꣣ सो꣡म꣢स्त्वा꣣ रा꣢जा꣣मृ꣢ते꣣ना꣡नु꣢ वस्ताम् । उ꣣रो꣡र्वरी꣢꣯यो꣣ व꣡रु꣢णस्ते कृणोतु꣣ ज꣡य꣢न्तं꣣ त्वा꣡नु꣢ दे꣣वा꣡ म꣢दन्तु ॥१८७०॥
स्वर सहित पद पाठम꣡र्मा꣢꣯णि । ते꣣ । व꣡र्म꣢꣯णा । छा꣣दयामि । सो꣡मः꣢꣯ । त्वा । रा꣡जा꣢꣯ । अ꣣मृ꣡ते꣢न । अ꣣ । मृ꣡ते꣢꣯न । अ꣡नु꣢꣯ । व꣣स्ताम् । उ꣣रोः꣢ । व꣡री꣢꣯यः । व꣡रु꣢꣯णः । ते꣣ । कृणोतु । ज꣡य꣢꣯न्तम् । त्वा꣣ । अ꣡नु꣢꣯ । दे꣣वाः꣢ । म꣣दन्तु ॥१८७०॥
स्वर रहित मन्त्र
मर्माणि ते वर्मणा च्छादयामि सोमस्त्वा राजामृतेनानु वस्ताम् । उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं त्वानु देवा मदन्तु ॥१८७०॥
स्वर रहित पद पाठ
मर्माणि । ते । वर्मणा । छादयामि । सोमः । त्वा । राजा । अमृतेन । अ । मृतेन । अनु । वस्ताम् । उरोः । वरीयः । वरुणः । ते । कृणोतु । जयन्तम् । त्वा । अनु । देवाः । मदन्तु ॥१८७०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1870
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम मन्त्र में विजयाभिलाषी को आशीर्वाद दिया जा रहा है।
पदार्थ -
हे अध्यात्म पथ के पथिक जीवात्मन् ! (ते) तेरे (मर्माणि) मन, बुद्धि, चक्षु आदि मर्म-स्थलों को (वर्मणा) ब्रह्म-रूप कवच से (छादयामि) ढकता हूँ। (राजा) विश्व का सम्राट् (सोमः) जगदीश्वर (त्वा) तुझे (अमृतेन) आनन्द-रस से (अनुवस्ताम्) आच्छादित करे। (वरुणः) दोषनिवारक, वरणीय, विद्वान् आचार्य (ते) तेरे लिए (उरोः) विस्तृत अध्यात्म ज्ञान के (वरीयः) अतिशय उत्कृष्ट तत्त्व को (कृणोतु) प्रदान करे। (जयन्तं त्वा) अध्यात्म-क्षेत्र में और बाह्य-क्षेत्र में विजयलाभ करते हुए तेरे (अनु) पीछे-पीछे (देवाः) मन, प्राण आदि भी (मदन्तु) लहलहायें ॥१॥
भावार्थ - योगमार्ग में पैर रखता हुआ मनुष्य ब्रह्मकवच से रक्षित होकर, गुरुजनों का मार्गनिर्देश पाकर, ब्रह्मानन्द का अनुभव करता हुआ मन, बुद्धि, प्राण आदियों के साथ अतिशय विजयी होता है ॥१॥
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