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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1870
    ऋषिः - पायुर्भारद्वाजः देवता - संग्रामशिषः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    31

    म꣡र्मा꣢णि ते꣣ व꣡र्म꣢णा च्छादयामि꣣ सो꣡म꣢स्त्वा꣣ रा꣢जा꣣मृ꣢ते꣣ना꣡नु꣢ वस्ताम् । उ꣣रो꣡र्वरी꣢꣯यो꣣ व꣡रु꣢णस्ते कृणोतु꣣ ज꣡य꣢न्तं꣣ त्वा꣡नु꣢ दे꣣वा꣡ म꣢दन्तु ॥१८७०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म꣡र्मा꣢꣯णि । ते꣣ । व꣡र्म꣢꣯णा । छा꣣दयामि । सो꣡मः꣢꣯ । त्वा । रा꣡जा꣢꣯ । अ꣣मृ꣡ते꣢न । अ꣣ । मृ꣡ते꣢꣯न । अ꣡नु꣢꣯ । व꣣स्ताम् । उ꣣रोः꣢ । व꣡री꣢꣯यः । व꣡रु꣢꣯णः । ते꣣ । कृणोतु । ज꣡य꣢꣯न्तम् । त्वा꣣ । अ꣡नु꣢꣯ । दे꣣वाः꣢ । म꣣दन्तु ॥१८७०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मर्माणि ते वर्मणा च्छादयामि सोमस्त्वा राजामृतेनानु वस्ताम् । उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं त्वानु देवा मदन्तु ॥१८७०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मर्माणि । ते । वर्मणा । छादयामि । सोमः । त्वा । राजा । अमृतेन । अ । मृतेन । अनु । वस्ताम् । उरोः । वरीयः । वरुणः । ते । कृणोतु । जयन्तम् । त्वा । अनु । देवाः । मदन्तु ॥१८७०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1870
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में विजयाभिलाषी को आशीर्वाद दिया जा रहा है।

    पदार्थ

    हे अध्यात्म पथ के पथिक जीवात्मन् ! (ते) तेरे (मर्माणि) मन, बुद्धि, चक्षु आदि मर्म-स्थलों को (वर्मणा) ब्रह्म-रूप कवच से (छादयामि) ढकता हूँ। (राजा) विश्व का सम्राट् (सोमः) जगदीश्वर (त्वा) तुझे (अमृतेन) आनन्द-रस से (अनुवस्ताम्) आच्छादित करे। (वरुणः) दोषनिवारक, वरणीय, विद्वान् आचार्य (ते) तेरे लिए (उरोः) विस्तृत अध्यात्म ज्ञान के (वरीयः) अतिशय उत्कृष्ट तत्त्व को (कृणोतु) प्रदान करे। (जयन्तं त्वा) अध्यात्म-क्षेत्र में और बाह्य-क्षेत्र में विजयलाभ करते हुए तेरे (अनु) पीछे-पीछे (देवाः) मन, प्राण आदि भी (मदन्तु) लहलहायें ॥१॥

    भावार्थ

    योगमार्ग में पैर रखता हुआ मनुष्य ब्रह्मकवच से रक्षित होकर, गुरुजनों का मार्गनिर्देश पाकर, ब्रह्मानन्द का अनुभव करता हुआ मन, बुद्धि, प्राण आदियों के साथ अतिशय विजयी होता है ॥१॥

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    पदार्थ

    (ते मर्माणि वर्मणा छादयामि) हे काम आदि के बाधक सत्यसङ्कल्पीजन! तेरे निर्बल प्रसङ्गों को वरणीय परमात्मदर्शन से सुरक्षित रखता हूँ (सोमः-राजा त्वा-अमृतेन-अनुवस्ताम्) राजमान शान्त परमात्मा तुझे अमृत ज्ञान प्रकाश से अनुरक्षित रखे (वरुणः) वरणकर्ता परमात्मा (ते) तेरे लिये (उरो वरीयः) हृदय के महान् अभीष्ट को करे (त्वा जयन्तं देवाः-अनु मदन्तु) तुझ जय करते हुए के साथ परमात्मदेव हर्षित करे॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—भरद्वाजः शासः (परमात्मा के अर्चनबल को धारण करने वाले से सम्बद्ध अध्यात्म शिक्षक)॥ देवता—लिङ्गोक्ताः (मन्त्र के पढ़े नामपद—सोम शान्तस्वरूप वरणकर्ता परमात्मा)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>

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    विषय

    तीन बातें

    पदार्थ

    व्यवहार – पहली बात यह है कि १. संसार में कितने ही व्यक्ति बड़े संवेदनशील होते हैं, छोटी-सी बात भी उन्हें चुभ जाती है । अंग्रेजी में कहें तो वे बड़े sensitive होते हैं। जैसे थोड़ीसी चोट से बड़ी वेदना का अनुभव करनेवाले स्थल ‘मर्मस्थल' कहलाते हैं, इसी प्रकार ये व्यक्ति भी 'मर्मस्थल'- से ही बन जाते हैं । मन्त्र कहता है कि (ते मर्माणि) = तेरे मर्मस्थलों को (वर्मणा) = कवच से (छादयामि) = ढक देता हूँ-तुझे कुछ कठोर चमड़ी का बना देता हूँ । मनुष्य को संसार के व्यवहार में कुछ कठोर चमड़ी का बनना ही चाहिए। बहुत संवेदनशील व्यक्ति संसार में नहीं चल सकता 'पल में रत्ती, पल में सेर' कैसे जी पाएगा? ऐसा व्यक्ति सदा क्षुब्ध रहता है ।

    शरीर – दूसरी बात यह है (त्वा) - तुझ (राजां सोमः) = शरीर में दीप्ति देनेवाला [राज दीप्तौ ] सोम=वीर्य [Semen] (अमृतेन) = अमरता से (अनुवस्ताम्) = आच्छादित करे, अर्थात् हमारा शरीर वीर्यशक्ति के कारण मृत्यु व रोगों से सदा दूर रहे । स्वस्थ शरीर मनुष्य ही तो संसार में आगे बढ़ सकता है।(‘मरणं विन्दुपातेन') = इस शक्ति के अपव्यय के परिणामस्वरूप ही हम जीतेजी मृत-से हो जाते हैं — और हमारा जीवन निरानन्द हो जाता है ।

    (मन–वरुणः) = सब बुराइयों को रोकनेवाला प्रभु (ते) = तुझ (उरो:) = विशाल हृदयवाले के लिए (वरीयः) = उत्कृष्ट सुख को (कृणोतु) = करे | हृदय की विशालता में ही पवित्रता व प्रसन्नता है, संकोच में अपवित्रता व खिझ है। विशालता से ही हम वासना को प्रेम में परिवर्तन कर लेते हैं और काम को जीत जाते हैं ।

    इस प्रकार (जयन्तम्) = जीतते हुए त्वा तुझे (देवा:) = देव (अनुमदन्तु) = उत्साहित करें । जीतनेवाले सदाचारी पुरुष का देव स्वागत करते हैं। पूर्णविजयी ब्रह्म का अतिथि बनता है। प्रथम नम्बर लेनेवाले पुत्र का जैसे माता-पिता स्वागत करते हैं, इसी प्रकार यह विजेता देवों से स्वागत किया जाता है। 

    भावार्थ

    हम अत्यधिक वेदनाशील न हों, शरीर में स्वस्थ व मन में विशाल बनकर देवताओं के प्रिय हों ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (ते) तेरे (मर्माणि) कोमल मर्मों को (वर्मणा) कवच से (आच्छादयामि) ढकता हूं। (सोमः राजा) दीप्तिमान् राजा के समान सबका प्रेरक सोम, परमेश्वर (अमृतेन) अमर आत्मशक्ति से (अनु वस्ताम्) और भी सुरक्षित करे। (वरुणः) सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर (ते) तुझे (उरोर्वरीयः) अधिक से अधिक वरणीय उत्तम सुख (कृणोतु) उत्पन्न करे। (जयन्तं) चरम मोक्ष को प्राप्त होते हुए (त्वां) तुझको देखकर (देवाः) विद्वान् लोग (अनु मदन्तु) हर्षित हों।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ विजयाभिलाषिणमाशिषा योजयति।

    पदार्थः

    हे अध्यात्मपथिक जीवात्मन् ! (ते) तव (मर्माणि) मर्मस्थानानि मनोबुद्धिचक्षुराद्यानि (वर्मणा) ब्रह्मरूपेण कवचेन। [वक्ष्यते च—‘ब्रह्म वर्म ममान्तरम्’ इति साम० १८७२।] (छादयामि) संवृणोमि। (राजा) विश्वसम्राट् (सोमः) जगदीश्वरः (त्वा) त्वाम् (अमृतेन) आनन्दरसेन (अनु वस्ताम्) अन्वाच्छादयतु। (वरुणः) दोषनिवारको वरणीयो विद्वान् आचार्यः (ते) तुभ्यम् (उरोः) विस्तीर्णस्य अध्यात्मज्ञानस्य (वरीयः) अतिशयेन वरं तत्त्वम् (कृणोतु) करोतु। (जयन्तं त्वा) अध्यात्मक्षेत्रे बाह्यक्षेत्रे च विजयं लभमानं त्वाम् (अनु) अनुसृत्य (देवाः) मनःप्राणादयोऽपि (मदन्तु) हृष्यन्तु ॥१॥२

    भावार्थः

    योगमार्गे पदं दधानो जनो ब्रह्मकवचेन रक्षितो भूत्वा गुरुजनानां मार्गनिर्देशं प्राप्य ब्रह्मानन्दमनुभवन् मनोबुद्धिप्राणादिभिः सह विजयतेतमाम् ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O valiant warrior, thy vital parts I cover with armour. May this cairn, considerate King protect thee with efficacious medicine. May the exalted King give thee more than ample joy. May the learned be delighted in thy triumph over the wicked!

    Translator Comment

    See Yajur 17-49.

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    Meaning

    O warrior of the bow, I cover the vital limbs of your body with armour for protection. Let the ruler Soma, immortal spirit of lifes vitality, give you close cover against death and mortality. Let the wise and judicious commander of the forces provide you the best and most abundant food and maintenance, and let the excellencies of the nation rejoice with you when you win the battle. (Rg. 6-75-18)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (ते मर्माणि वर्मणा छादयामि) હે કામ આદિના બાધક સત્ય સંકલ્પીજન ! તારા નિર્બળ પ્રસંગોને વરણીય પરમાત્મદર્શનથી સુરક્ષિત રાખું છું. (सोमः राजा त्वा अमृतेन अनुवस्ताम्) પ્રકાશમાન શાન્ત પરમાત્મા તને અમૃત જ્ઞાન પ્રકાશથી સુરક્ષિત રાખે. (वरुणः) વરણકર્તા પરમાત્મા (ते) તારા માટે (उरोवरीयः) હૃદયના મહાન અભીષ્ટને કરે. (त्वा जयन्तं देवाः अनु मदन्तु) તને વિજય કરતાની સાથેજોઈને પરમાત્મદેવ હર્ષિત-આનંદિત કરે. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    योगामार्गाचा अवलंब करून माणूस ब्रह्मकवचाने रक्षित होऊन, गुरुजनांचे मार्गदर्शन प्राप्त करतो व ब्रह्मानंदाचा अनुभव घेत मन, बुद्धी, प्राण इत्यादींसह विजयी होतो. ॥१॥

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