Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1869
ऋषिः - अप्रतिरथ इन्द्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - विराड् जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
28
इ꣡न्द्र꣢स्य बा꣣हू꣡ स्थवि꣢꣯रौ꣣ यु꣡वा꣢नावनाधृ꣣ष्यौ꣡ सु꣢प्रती꣣का꣡व꣢स꣣ह्यौ꣢ । तौ꣡ यु꣢ञ्जीत प्रथ꣣मौ꣢꣫ योग꣣ आ꣡ग꣢ते꣣ या꣡भ्यां꣢ जि꣣त꣡मसु꣢꣯राणा꣣ꣳ स꣡हो꣢ म꣣ह꣢त् ॥१८६९॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्र꣢꣯स्य । बा꣣हू꣡इति꣢ । स्थ꣡वि꣢꣯रौ । स्थ । वि꣢रौ । यु꣡वा꣢꣯नौ । अ꣣नाधृष्यौ꣢ । अ꣣न् । आधृष्यौ꣢ । सु꣣प्रतीकौ꣢ । सु꣢ । प्रतीकौ꣣ । अ꣣सह्यौ । अ꣣ । स꣢ह्यौ । तौ । यु꣢ञ्जीत । प्रथमौ꣢ । यो꣡गे꣢꣯ । आ꣡ग꣢꣯ते । आ । ग꣣ते । या꣡भ्या꣢꣯म् । जि꣣त꣢म् । अ꣡सु꣢꣯राणाम् । अ । सु꣣राणाम् । स꣡हः꣢꣯ । म꣣ह꣢त् ॥१८६९॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्य बाहू स्थविरौ युवानावनाधृष्यौ सुप्रतीकावसह्यौ । तौ युञ्जीत प्रथमौ योग आगते याभ्यां जितमसुराणाꣳ सहो महत् ॥१८६९॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रस्य । बाहूइति । स्थविरौ । स्थ । विरौ । युवानौ । अनाधृष्यौ । अन् । आधृष्यौ । सुप्रतीकौ । सु । प्रतीकौ । असह्यौ । अ । सह्यौ । तौ । युञ्जीत । प्रथमौ । योगे । आगते । आ । गते । याभ्याम् । जितम् । असुराणाम् । अ । सुराणाम् । सहः । महत् ॥१८६९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1869
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में इन्द्र जीवात्मा के विषय-साधनों का वर्णन है।
पदार्थ
(इन्द्रस्य) सेनापति-तुल्य जीवात्मा की (बाहू) प्राण-अपान रूप भुजाएँ (स्थविरौ) स्थिर, (युवानौ) तरुण, (अनाधृष्यौ) मन और शरीर के मलों से अपराजेय, (सुप्रतीकौ) शत्रु के प्रति भली-भाँति आगे बढ़नेवाली और (असह्यौ) रोग आदियों से असह्य हैं। (योगे आगते) अष्टाङ्ग योग के उपस्थित होने पर, योग-साधक (तौ) उन प्राण-अपान-रूप भुजाओं का (युञ्जीत) प्रयोग करे, (याभ्याम्) जिनसे (असुराणाम्) आधि-व्याधि-रूप दैत्यों का (महत् सहः) विशाल बल (जितम्) जीत लिया जाता है ॥३॥ यहाँ उपमेय प्राण-अपान के निगरणपूर्वक उपमानभूत बाहुओं का वर्णन होने से अतिशयोक्ति अलङ्कार है। ‘स्थविर’ अर्थात् बूढ़े होने पर भी ‘युवा’ यह विरोधालङ्कार ध्वनित होता है। ऊपर की व्याख्या से उस विरोध का परिहार हो जाता है ॥३॥
भावार्थ
योगाभ्यास में पूरक, कुम्भक आदि प्राणायाम से इन्द्रियों के सब दोष नष्ट हो जाते हैं और प्रकाश के आवरण का क्षय हो जाने पर धारणाओं में मन की योग्यता हो जाती है। इसलिए प्राण-अपान सेनापति की बाहुओं के समान सहायक होते हैं ॥३॥
पदार्थ
(इन्द्रस्य) परमात्मा के (बाहू) काम आदि को बाँधने वाले ज्ञान और आनन्द गुण (स्थविरौ) स्थिर (युवानौ) जरारहित बलवान् (अनाधृष्यौ) न दबाए जाने वाले (सुप्रतीके) सुस्पष्ट (असह्यौ) न सह सकने योग्य (तौ प्रथमौ युञ्जीत) हे उपासको! उन प्रमुखों से युक्त होओ (आगते योगे) प्राप्त अवसर या योग प्राप्त होने के निमित्त (याभ्याम्) जिनके द्वारा (असुराणां महत् सहः-जितम्) अनृतों—अनर्थों पापों के महान् बल को जीता है—जीता जाता है॥३॥
विशेष
<br>
विषय
असुरों के महान् बल का पराजय
पदार्थ
(इन्द्रस्य) = इन्द्र की (बाहू) = दो बाहुएँ हैं । इन्द्र को चाहिए कि (योगे आगते) = प्रयोग का अवसर आने पर (तौ) =उन दोनों भुजाओं का (युञ्जीत) = प्रयोग करे। ये बाहुएँ वे हैं (याभ्याम्) = जिनसे (असुराणाम्) = असुरों का (महत् सहः) = महान् बल भी (जितम्) = जीत लिया जाता है; इनके द्वारा इन्द्र असुरों के महान् बल को भी पराजित कर देता है । वासनाओं को जीतना सुगम नहीं । इनका बल महान् है, इसमें तो शक ही नहीं, परन्तु इनको जीतना आवश्यक भी है। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि इन्द्र यदि अपनी दो बाहुओं का समय पर प्रयोग करता है तब ये असुरों का बल भी कुचल दिया जाता है। अब विचारणीय विषय यह है कि इन्द्र की ये दो बाहुएँ हैं क्या ? प्रस्तुत मन्त्र में 'योग' तथा 'युञ्जीत' इन शब्दों को देखकर योग सम्बद्ध प्राण- अपान की ओर ध्यान जाता है कि इन प्राणापानों का प्रयोग करें। प्राणापानों की साधना का महत्त्व योगमार्ग में स्पष्ट है, परन्तु 'बाहु' शब्द 'बाह्र प्रयत्ने' से बनकर संकेत कर रहा है कि ये प्राणापान न होकर 'ज्ञान और श्रद्धारूप दो प्रयत्न हैं जिनके द्वारा इन्द्र को प्रत्येक कर्म करना है। इनसे किया हुआ कर्म ही वीर्यवत्तर होता है। एवं, यहाँ बाहू शब्द से 'ज्ञान और श्रद्धा' ही अपेक्षित हैं । इन्द्र के ये ही दो महान् प्रयत्न हैं – इन्हें अपनाकर ही वह असुरों पर प्रबल हो पाता है। प्रसङ्ग आने पर इन्द्र को इनका ठीक विनियोग करना है। इन्द्र के ये दोनों ‘बाहु' कैसे हैं? यह मन्त्र के निम्न शब्दों से स्पष्ट है
१. (स्थविरौ) = ये स्थविर हैं— मनुष्य को स्थित प्रज्ञ बनानेवाले हैं। उसकी चंचलता को समाप्त करके उसे स्थिरशील बनाते हैं । २. (युवानौ) = ये ज्ञान और श्रद्धा पाप से पृथक् [यु=अमिश्रण] और पुण्य से संयुक्त करनेवाले हैं [यु- मिश्रण], ३. (अनाधृष्यौ) = ज्ञान और श्रद्धा मनुष्य को विषयों से अधर्षणीय बनाते हैं, ४. (सुप्रतीकौ) = ये दोनों सुन्दर मुखवाले हैं, अर्थात् इन्द्र के जीवन को सुन्दर बनानेवाले हैं, ५. (असह्यौ) = इन्द्र की शक्ति को कोई भी वासना सह नहीं सकती और परिणामतः कुचली जाती है, ६. (प्रथमौ) = ये मनुष्य को प्रथम श्रेणी को प्राप्त करानेवाले हैं। मनुष्यों में प्रथम स्थान ‘ब्रह्मा' का है । ये ज्ञान और श्रद्धा अपने आधारभूत मनुष्य को 'ब्रह्मा' ही बना देते हैं । यह मानव-जीवन की सर्वोच्च स्थिति है । ब्रह्मा ही तो देवताओं में प्रथम है, यही उत्तम सात्त्विक गति में प्रथम स्थान रखता है ।
भावार्थ
मैं श्रद्धा और ज्ञान को अपनाकर ब्रह्मा की स्थिति को प्राप्त करूँ ।
विषय
missing
भावार्थ
(इन्द्रस्य) राजा के समान इस आत्मा की (युवानौ) जवानी भरी सदा बलवान् (स्थविरा) मज़बूत, पक्की, सदा स्थिर रहने वाली, (अनाधृष्यौ) कभी पराजित न होने वाली (सुप्रतीकौ) उत्तम रीति से शत्रु का मुक़ाबला करने वाली, (असह्यौ) शत्रुओं के लिये असह्य (बाहू) उनको पीड़ा देने हारी, प्राण और अपान दो बाहुएं हैं (प्रथमे) प्रारम्भ में ही (योगे आगते) संग्राम के समान कठिन, श्रमदायी योग समाधि के अवसर प्राप्त होने पर (तौ) उन दोनों को उचित रीति से (युञ्जीत) समाधि साधना में प्रयोग करे, अर्थात् चित्तवृत्ति के स्थिर करने के लिये प्राणायाम का अभ्यास करे। (याभ्यां) जिनसे (असुराणां) अन्य प्राणों का (महत्) बढ़ा भारी (सहः) बल (जितम्) वश किया जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रस्य जीवात्मनो विजयसाधनानि वर्णयति।
पदार्थः
(इन्द्रस्य) सेनापतेरिव जीवात्मनः (बाहू) प्राणापानरूपौ भुजौ (स्थविरौ) स्थिरौ। [स्था धातोः ‘अजिरशिशिर०’ उ० १।५३। इति किरच् प्रत्ययान्तो निपातः। धातोर्वुग् ह्रस्वत्वं च।] (युवानौ) तरुणौ, (अनाधृष्यौ) मानसैर्दैहिकैश्च मलैः अप्रधृष्यौ, (सुप्रतीकौ) शत्रुं प्रति सुप्रत्यञ्चनौ, (असह्यौ) रोगादिभिः सोढुमशक्यौ स्तः। (योगे आगते) अष्टाङ्गयोगे उपस्थिते सति, योगसाधकः (तौ) प्राणापानरूपौ भुजौ (युञ्जीत) प्रयोजयेत्, (याभ्याम्) प्राणापानरूपाभ्यां बाहुभ्याम् (असुराणाम्) आधिव्याधिरूपाणां दैत्यानाम् (महत् सहः) महद् बलम् (जितम्) परास्तं भवति ॥३॥ अत्रोपमेययोः प्राणापानयोर्निगरणपूर्वकमुपमानभूतयोर्बाह्वोर्वर्णनादति- शयोक्तिरलङ्कारः। ‘स्थविरौ वृद्धौ अपि युवानौ’ इति विरोधो ध्वन्यते, व्याख्यातदिशा च परिहारः ॥३॥
भावार्थः
योगाभ्यासे पूरककुम्भकादिना प्राणायामेनेन्द्रियाणां सर्वे दोषा नश्यन्ति, प्रकाशावरणक्षये च धारणासु मनसो योग्यता सञ्जायते, अतः प्राणापानौ सेनापतेर्बाहू इव सहायकौ भवतः ॥३॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Strong, ever-youthful, unassailable, fair, unendurable, are the arms of the King. These first let him employ at the time of battle, wherewith the great might of atrociously cruel persons is overthrown.
Meaning
The two arms of Indras forces are steady and strong, youthful, redoubtable, undauntable, unchallengeable. Let these two first be deployed when the occasion has arisen, since by these is conquered the mighty force of the asuras, warriors of negativity and destruction.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्रस्य) પરમાત્માના (बाहू) કામ આદિને બાંધનારા જ્ઞાન અને આનંદગુણ (स्थविरौ) સ્થિર (युवानौ) વૃદ્ધત્વ રહિત-યુવાન બળવાન (अनाधृष्यौ) દબાવી ન શકાય તેવા (सुप्रतीके) સુસ્પષ્ટ (असह्यौ) સહન ન કરી શકે તેવા (तौ प्रथमौ युञ्जीत) હે ઉપાસકો ! તે મુખ્ય રૂપોથી યુક્ત બનો. (आगते योगे) પ્રાપ્ત અવસર અથવા યોગ પ્રાપ્ત થવાને માટે (याभ्याम्) જેના દ્વારા (असुराणां महत् सहः जितम्) અસત્યો અનર્થો પાપોના મહાન બળને જીતાય છે-જીતી શકાય છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
योगाभ्यासात पूरक, कुंभक इत्यादी प्राणायामाने इंद्रियांचे सर्व दोष नष्ट होतात व प्रकाशाचे आवरण नष्ट झाल्यावर धारणेमध्ये मनाची योग्यता निर्माण होते त्यासाठी प्राण-अपान सेनापतीच्या बाहूप्रमाणे सहायक असतात. ॥३॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal