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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1871
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः पायुर्भारद्वाजो वा
देवता - संग्रामशिषः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
110
अ꣣न्धा꣡ अ꣢मित्रा भवताशीर्षा꣣णो꣡ऽह꣢य इव । ते꣡षां꣢ वो अ꣣ग्नि꣡नु꣢न्नाना꣣मि꣡न्द्रो꣢ हन्तु꣣ व꣡रं꣢वरम् ॥१८७१
स्वर सहित पद पाठअन्धाः꣢ । अ꣣मित्राः । अ । मित्राः । भवत । अशीर्षाणः꣢ । अ꣣ । शीर्षाणः꣢ । अ꣡ह꣢꣯यः । इ꣣व । ते꣡षा꣢꣯म् । वः꣣ । अग्नि꣡नु꣢न्नानाम् । अ꣣ग्नि꣢ । नु꣣न्नानाम् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । ह꣣न्तु । व꣡रं꣢꣯वरम् । व꣡र꣢꣯म् । व꣣रम् ॥१८७१॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्धा अमित्रा भवताशीर्षाणोऽहय इव । तेषां वो अग्निनुन्नानामिन्द्रो हन्तु वरंवरम् ॥१८७१
स्वर रहित पद पाठ
अन्धाः । अमित्राः । अ । मित्राः । भवत । अशीर्षाणः । अ । शीर्षाणः । अहयः । इव । तेषाम् । वः । अग्निनुन्नानाम् । अग्नि । नुन्नानाम् । इन्द्रः । हन्तु । वरंवरम् । वरम् । वरम् ॥१८७१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1871
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में शत्रुओं को भर्त्सना दी जा रही है।
पदार्थ
हे (अमित्राः) आन्तरिक और बाह्य शत्रुओ ! तुम (अन्धाः) अन्धे और (अशीर्षाणः अहयः इव) फन-कटे साँपों के समान प्रभाव-रहित (भवत) हो जाओ। (अग्निनुन्नानां तेषां वः) अग्नि के समान ज्वलन्त दृढ सङ्कल्प से दूर किये हुए उन तुम शत्रुओं में से (वरं-वरम्) प्रधान-प्रधान को चुन-चुन कर (इन्द्रः) हमारा अन्तरात्मा (हन्तु) विनष्ट कर दे ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ
भयङ्कर फटाटोप दिखानेवाले विषधर भी फन कट जाने पर कुछ भी कर सकने में असमर्थ हो जाते हैं। वैसे ही प्रबल सङ्कल्प से जिनका बल हर लिया गया है, ऐसे आन्तरिक और बाह्य सब शत्रु निष्क्रिय और मृत हो जाएँ ॥२॥
पदार्थ
(अमित्राः) हे काम आदि शत्रुओ! तुम (अशीर्षाणः-अन्धाः-अहयः-इव भवत) छिन्न शिर वाले या फण रहित अन्धे सर्पों के समान हो जाओ (तेषां वः-अग्निनुन्नानाम्) उन तुम्हारे ज्ञानाग्नि से पछाड़े—दबाए हुओं से (इन्द्रः-वरं वरं हन्तु) परमात्मा बड़े बड़े दोष को नष्ट करे—करता है॥२॥
विशेष
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विषय
प्रेम का पाठ पढ़ो [ Those who do not love ]
पदार्थ
अमित्र वे हैं जिन्होंने [जिमिदा स्नेहने] स्नेह का पाठ नहीं पढ़ा । यदि ये कुछ भी सोचते तो इनका व्यवहार ऐसा स्नेहशून्य न होता । छोटों के साथ स्नेह से चलना ही चाहिए, क्योंकि वे न जाने कब तक हमारे साथ रहें । यदि वे छोटी अवस्था में चले गये तो हमें उनके प्रति बोले गये कटु शब्द काटते रहेंगे और उन्होंने सदा बच्चे भी तो नहीं बने रहना । ये कटु शब्द ही उनके हृदयों में हमारे लिए निरादर के भाव में परिणत हो जाएँगे।
अपने बराबरवालों के साथ तो कटु शब्द बोलने ही नहीं चाहिएँ, क्योंकि वे कटु शब्द द्विगुणित होकर हमारे प्रति ही लौटेंगे। इस प्रकार परस्पर वैर बढ़ता चलेगा । वृद्धों के साथ भी कटु शब्द नहीं बोलने, क्योंकि उनका जीवन अब थोड़ा ही तो बचा है, हम उन्हें अन्तिम समय अशान्त क्यों करें ? इस प्रकार स्पष्ट है कि अ-मित्र वे ही हैं जो द्वेष के कटु शब्दों के परिणामों को देखते नहीं । वेद कहता है कि (अमित्रा:) = कटुता से वर्तनेवालो ! (अन्धाः भवत) = क्या अन्धे हुए हो– कटुता का दुष्परिणाम तुम्हें दिखता नहीं ? (अ-शीर्षाण:) = तुम्हारा दिमाग़ है या नहीं; क्या विचारशक्ति में तुमने ताला ही लगा दिया है। तुम तो ('अहयः इव') = साँपों- जैसे हो गये हो । या तो औरों को डसते ही फिरना या फिर अपने विष से स्वयं अन्दर - ही - अन्दर जलना । तुम्हारे जीवन का लक्ष्य भी तो औरों से बदला लेते रहना या फिर अन्दर ही अन्दर द्वेषाग्नि से जलते रहना हो गया है। -
इस प्रकार के व्यक्तियों के लिए ऐसी व्यवस्था हो कि अग्नि के समान प्रकाश की दीप्तिवाले ब्राह्मण इन्हें द्वेष के मार्ग को छोड़कर प्रेम का मार्ग अपनाने का उपदेश दें, परन्तु यदि अचानक कुछ ऐसे हतवृत्त व्यक्ति हों जो किसी प्रकार के उपदेश से नहीं सुधर सकते हों तब राजा उन्हें दण्डित करे, जिससे प्रजा को उनके क्रोध का पात्र न होना पड़े । वेद कहता है कि (तेषां वः) = उन तुममें से (अग्नि-नुन्नानाम्) = जिनको अग्रणी ब्राह्मणों ने प्रेरणा प्राप्त कराई, परन्तु जिन्होंने उस प्रेरणा को नहीं सुना ऐसे दुष्टों में जो (वरंवरम्) = उत्तम हैं, अर्थात् firstclass rogues हैं, प्रथम श्रेणी के धूर्त हैं, उन्हें (इन्द्रः) = राजा (हन्तु) = दण्डित करे । दण्ड का नियम सदा यही है कि पहले ब्राह्मण समझाए और फिर विवशता में राजा दण्ड दे ।
भावार्थ
हम सोचें, समझें और प्रेम का पाठ पढ़ें ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (अमित्राः) द्वेषभाव रखने हारे शत्रुओ ! तुम लोग (अशीर्षाणः) बिना दिमाग के, बिना सिरवाले, क्रोधी (अहयः इव) सांपों के समान (अन्धाः भवत) अन्धे, अविवेकी होजाओ। (अग्निनुन्नानां) अपने ही क्रोध की आग से फुंके हुए, (तेषां) उनके (वरं वरं) उत्तम उत्तम पुरुष या शिर को (इन्द्रः) राजा, प्रभु नाश करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथामित्रान् भर्त्सयति।
पदार्थः
हे (अमित्राः) आन्तरा बाह्याश्च रिपवः ! यूयम् (अन्धाः) दर्शनासमर्थाः (अशीर्षाणः अहयः इव) छिन्नफणाः सर्पा इव च प्रभावहीनाः (भवत) जायध्वम्। (अग्निनुन्नानां तेषां वाः) अग्निवत् प्रोज्ज्वलेन दृढसंकल्पेन दूरं प्रेरितानां तेषां युष्माकम् (वरं-वरम्) प्रधानं प्रधानम् अवचित्य (इन्द्रः) अन्तरात्मा (हन्तु) विनाशयतु ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
भावार्थः
भयङ्करं फटाटोपं दर्शयन्तो विषधरा अपि छिन्नशिरस्काः सन्तो यथाऽकिञ्चित्करा भवन्ति तथैव प्रबलसंकल्पेन हृतबला आभ्यन्तरा बाह्याश्च सर्वे सपत्ना निष्क्रिया मृताश्च जायन्ताम् ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Blind, O my foemen, shall ye be, even as headiest ; serpents are. may the Commander kill each best of you when fire has struck you down!
Meaning
Enemies are blind like cobras with heads and fangs lost. Of these, struck and bruised by fire, Indra should better eliminate every one discreetly. (Atharva 6-67-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अमित्राः) હે કામ આદિ શત્રુઓ ! તમે (अशीर्शाणः अन्धाः अहयः इव भवत) કપાયેલા માથાવાળા અથવા ફેણ રહિત આંધળા સાપની સમાન થાઓ. (तेषां वः अग्निनुन्नानाम्) તે તમારા જ્ઞાનાગ્નિને પછાડે-દબાવીને (इन्द्रःवरं वरं हन्त) પરમાત્મા મોટા-મોટા દોષોનો નાશ કરે-કરે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
भयंकर फणा फैलावलेला विषधर सर्प फणा नष्ट झाल्यावर काहीही करण्यास समर्थ नसतो. तसेच प्रबल संकल्पाद्वारे ज्यांचे बल नाहीसे होते असे आंतरिक व बाह्य सर्व शत्रू निष्क्रिय व मृत व्हावेत. ॥२॥
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