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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 19
ऋषिः - प्रयोगो भार्गवः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
11
अ꣣ग्नि꣡मि꣢न्धा꣣नो꣡ मन꣢꣯सा꣣ धि꣡य꣢ꣳ सचेत꣣ म꣡र्त्यः꣢ । अ꣣ग्नि꣡मि꣢न्धे वि꣣व꣡स्व꣢भिः ॥१९॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣ग्नि꣢म् । इ꣣न्धानः꣢ । म꣡न꣢꣯सा । धि꣡य꣢꣯म् स꣣चेत । म꣡र्त्यः꣢꣯ । अ꣣ग्नि꣢म् । इ꣣न्धे । वि꣣व꣡स्व꣢भिः । वि꣣ । व꣡स्व꣢भिः ॥१९॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निमिन्धानो मनसा धियꣳ सचेत मर्त्यः । अग्निमिन्धे विवस्वभिः ॥१९॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निम् । इन्धानः । मनसा । धियम् सचेत । मर्त्यः । अग्निम् । इन्धे । विवस्वभिः । वि । वस्वभिः ॥१९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 19
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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विषय - ईश्वर की आराधना के साथ कर्म भी करे, यह कहते हैं।
पदार्थ -
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (मनसा) मन से (अग्निम्) हृदय में छिपे परमात्मा-रूप अग्नि को (इन्धानः) प्रदीप्त अर्थात् प्रकट करता हुआ (मर्त्यः) मरणधर्मा मनुष्य (धियम्) कर्म को (सचेत) सेवे—यह वैदिक प्रेरणा है। उस प्रेरणा से प्रेरित हुआ मैं (विवस्वभिः) अज्ञान को विध्वस्त करनेवाली, आदित्य के समान भासमान मनोवृत्तियों से (अग्निम्) ज्योतिर्मय परमात्माग्नि को तथा कर्म की अग्नि को (इन्धे) प्रदीप्त करता हूँ, हृदय में प्रकट करता हूँ ॥ द्वितीय—यज्ञाग्नि के पक्ष में। यज्ञकर्म के लिए प्रेरणा है। (मनसा) श्रद्धा के साथ (अग्निम्) यज्ञाग्नि को (इन्धानः) प्रदीप्त करता हुआ (मर्त्यः) यजमान मनुष्य (धियम्) यज्ञविधियों को भी (सचेत) करे—यह वेद का आदेश है। तदनुसार मैं भी यज्ञकर्म करने के लिए (विवस्वभिः) प्रातः सूर्यकिरणों के उदय के साथ ही (अग्निम्) यज्ञाग्नि को (इन्धे) प्रदीप्त करता हूँ। इससे यह सूचित होता है कि प्रातः यज्ञ का समय सूर्यकिरणों का उदय-काल है ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥९॥
भावार्थ - यहाँ मर्त्य पद साभिप्राय है। मनुष्य मरणधर्मा है, न जाने कब मृत्यु की पकड़ में आ जाये। इसलिए जैसे यज्ञकर्म करने के लिए अग्नि को प्रज्वलित करता है, वैसे ही इसी जन्म में योगाभ्यास से हृदय में परमात्मा को प्रकाशित करके जीवन-पर्यन्त अग्निहोत्र आदि तथा समाज-सेवा आदि कर्मों को करे। यह न समझे कि यदि परमेश्वर का साक्षात्कार कर लिया, तो फिर कर्मों से क्या प्रयोजन, क्योंकि कर्मों को करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करे (य० ४०।२), यही वैदिक मार्ग है ॥९॥
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