Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 208
ऋषिः - सुकक्ष आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
7

श्रु꣣तं꣡ वो꣢ वृत्र꣣ह꣡न्त꣢मं꣣ प्र꣡ शर्धं꣢꣯ चर्षणी꣣ना꣢म् । आ꣣शि꣢षे꣣ रा꣡ध꣢से म꣣हे꣢ ॥२०८॥

स्वर सहित पद पाठ

श्रु꣣त꣢म् । वः꣣ । वृत्रह꣡न्त꣢मम् । वृ꣣त्र । ह꣡न्त꣢꣯मम् । प्र । श꣡र्ध꣢꣯म् । च꣣र्षणीना꣢म् । आ꣣शि꣡षे꣣ । आ꣣ । शि꣡षे꣢꣯ । रा꣡ध꣢꣯से । म꣣हे꣢ ॥२०८॥


स्वर रहित मन्त्र

श्रुतं वो वृत्रहन्तमं प्र शर्धं चर्षणीनाम् । आशिषे राधसे महे ॥२०८॥


स्वर रहित पद पाठ

श्रुतम् । वः । वृत्रहन्तमम् । वृत्र । हन्तमम् । प्र । शर्धम् । चर्षणीनाम् । आशिषे । आ । शिषे । राधसे । महे ॥२०८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 208
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 10;
Acknowledgment

पदार्थ -
हे मित्रो ! (श्रुतम्) सर्वत्र प्रख्यात, (वः) तुम्हारे (वृत्रहन्तमम्) पाप, विघ्न, अविद्या आदि को अतिशय विनष्ट करनेवाले, (चर्षणीनाम्) मनुष्यों के (प्र शर्धम्) अतिशय बल एवं उत्साह के प्रदाता परमेश्वर, राजा या आचार्य की (राधसे) ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए व कार्यसिद्धि के लिए, और (महे) महत्ता तथा पूज्यता की प्राप्ति के लिए, मैं (आशिषे) स्तुति करता हूँ ॥५॥

भावार्थ - जो मनुष्य जगदीश्वर, राजा व आचार्य को उनके गुण-कर्मों का वर्णन करते हुए स्मरण करते हैं और उनकी सेवा करते हैं, वे अविद्या, पाप, विघ्न, विपत्ति आदि को पार करके सब कल्याणों के भाजन बनते हैं ॥५॥

इस भाष्य को एडिट करें
Top