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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 254
ऋषिः - रेभः काश्यपः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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या꣡ इ꣢न्द्र꣣ भु꣢ज꣣ आ꣡भ꣢रः꣣꣬ स्व꣢꣯र्वा꣣ꣳ अ꣡सु꣢रेभ्यः । स्तो꣣ता꣢र꣣मि꣡न्म꣢घवन्नस्य वर्धय꣣ ये꣢ च꣣ त्वे꣢ वृ꣢क्त꣡ब꣢र्हिषः ॥२५४॥
स्वर सहित पद पाठयाः꣢ । इ꣣न्द्र । भु꣡जः꣢ । आ꣡भ꣢꣯रः । आ꣣ । अ꣡भरः꣢꣯ । स्व꣢꣯र्वान् । अ꣡सु꣢꣯रेभ्यः । अ । सु꣣रेभ्यः । स्तोता꣡र꣢म् । इत् । म꣣घवन् । अस्य । वर्धय । ये꣢ । च꣣ । त्वे꣡इति꣢ । वृ꣣क्त꣡ब꣢र्हिषः । वृ꣣क्त꣢ । ब꣣र्हिषः । ॥२५४॥
स्वर रहित मन्त्र
या इन्द्र भुज आभरः स्वर्वाꣳ असुरेभ्यः । स्तोतारमिन्मघवन्नस्य वर्धय ये च त्वे वृक्तबर्हिषः ॥२५४॥
स्वर रहित पद पाठ
याः । इन्द्र । भुजः । आभरः । आ । अभरः । स्वर्वान् । असुरेभ्यः । अ । सुरेभ्यः । स्तोतारम् । इत् । मघवन् । अस्य । वर्धय । ये । च । त्वेइति । वृक्तबर्हिषः । वृक्त । बर्हिषः । ॥२५४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 254
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3;
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विषय - अगले मन्त्र में परमात्मा और राजा से प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ -
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (स्वर्वान्) धनवान्, प्रकाशवान् और आनन्दवान् आप (अ-सुरेभ्यः) जो सुरापान करके उन्मत्त नहीं हुए हैं, किन्तु जागरूक हैं, उनके लिए (याः भुजः) जिन अन्तप्रकाशरूप वा आनन्दरूप भोगों को (आ अभरः) लाते हो, उनसे, हे (मघवन्) दिव्य सम्पत्ति के स्वामी ! (अस्य) इस अध्यात्म-यज्ञ के (स्तोतारम्) स्तोता यजमान को (इत्) अवश्य ही (वर्धय) बढ़ाओ, (ये च) और जो (त्वयि) आपकी प्राप्ति करानेवाले अध्यात्मयज्ञ में (वृक्तबर्हिषः) मार्गदर्शक ऋत्विज् लोग हैं, उन्हें भी बढ़ाओ ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (इन्द्र) शुत्रविदारक सम्पत्तिप्रदायक राजन् ! (स्वर्वान्) राजनीति विद्या के प्रकाश से युक्त आपने (असुरेभ्यः) अदानी, अपने कोठों में ही राष्ट्र की सम्पत्ति को भरनेवाले कृपणों के पास से (याः भुजः) जिन भोग्य-सम्पदाओं को (आ अभरः) अपहृत किया है, छीना है, उनसे, हे (मघवन्) धनी राजन् ! (अस्य) इस राष्ट्रयज्ञ के (स्तोतारम्) स्तोता को, राष्ट्रगीत के गायक को, न कि राष्ट्र द्रोही को (इत्) ही (वर्धय) समृद्ध कीजिए, (ये च) और जो (त्वे) आपके लिए, आपकी सहायता के लिए (वृक्तबर्हिषः) राष्ट्रयज्ञ का विस्तार करनेवाले राजपुरुष हैं, उन्हें भी समृद्ध कीजिए ॥ राजा को उचित है कि अपने राज्य के कृपण धनपतियों को प्रेरणा करे कि वे निर्धनों को अपने धन का दान करें। फिर भी जो दान न करें, उनके धन को बलात् उनसे छीन ले, यह वैदिक मर्यादा अनेक वेदवाक्यों से प्रमाणित होती है, यथा ‘हे तेजस्वी पोषक राजन्, जो अपनी सम्पत्ति का दान नहीं करना चाहता, उसे आप दान के लिए प्रेरित कीजिए। ऋ० ६।५३।३’, हे राष्ट्र के स्वामी राजन् ! दान न करनेवालों के धन को आप छीन लीजिए—ऋ० १।८१।९। यही बात प्रस्तुत मन्त्र में भी कही गयी है ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ - जैसे परमेश्वर धार्मिक उपासकों को ज्ञान-प्रकाश से और दिव्य आनन्द से समृद्ध करता है, वैसे ही राजा भी राष्ट्र-भक्तों को समृद्ध करे और राष्ट्रद्रोहियों को दण्डित करे ॥२॥
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