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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 255
ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः
देवता - मित्रावरुणादित्याः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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प्र꣢ मि꣣त्रा꣢य꣣ प्रा꣢र्य꣣म्णे꣡ स꣢च꣣꣬थ्य꣢꣯मृतावसो । व꣣रूथ्ये꣢३ व꣡रु꣢णे꣣ छ꣢न्द्यं꣣ व꣡चः꣢ स्तो꣣त्र꣡ꣳ राज꣢꣯सु गायत ॥२५५॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । मि꣣त्रा꣡य꣢ । मि꣣ । त्रा꣡य꣢꣯ । प्र । अ꣣र्यम्णे꣢ । स꣣च꣡थ्य꣢म् । ऋ꣣तावसो । ऋत । वसो । व꣣रूथ्ये꣢꣯ । व꣡रु꣢꣯णे । छ꣡न्द्य꣢꣯म् । व꣡चः꣢꣯ । स्तो꣣त्र꣢म् । रा꣡ज꣢꣯सु । गा꣣यत ॥२५५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र मित्राय प्रार्यम्णे सचथ्यमृतावसो । वरूथ्ये३ वरुणे छन्द्यं वचः स्तोत्रꣳ राजसु गायत ॥२५५॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । मित्राय । मि । त्राय । प्र । अर्यम्णे । सचथ्यम् । ऋतावसो । ऋत । वसो । वरूथ्ये । वरुणे । छन्द्यम् । वचः । स्तोत्रम् । राजसु । गायत ॥२५५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 255
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3;
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विषय - अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि इन्द्र के अतिरिक्त अन्य कौन-कौन गुण-वर्णन द्वारा स्तुति करने योग्य हैं। मन्त्र के देवता आदित्य अर्थात् अदिति के पुत्र मित्र, अर्यमा और वरुण हैं।
पदार्थ -
प्रथम—वायु आदि के पक्ष में। हे (ऋतावसो) सत्यरूप धनवाले मानव ! तू (मित्राय) वायु के लिए, (अर्यम्णे) आदित्य के लिए और (वरुथ्ये) शरीर रूप गृह के लिए हितकर (वरुणे) अग्नि के लिए (सचथ्यम्) सेवनीय, (छन्द्यम्) छन्दोबद्ध (वचः) स्तुति-वचन को (प्र प्र) भली-भाँति गान कर, गान कर। हे भाइयो ! तुम भी (राजसु) उक्त शोभायमान वायु, आदित्य और अग्नि के सम्बन्ध में (स्तोत्रम्) स्तोत्र का (गायत) गान करो ॥ द्वितीय—प्राणों के पक्ष में। हे (ऋतावसो) प्राणायाम रूप यज्ञ को धन माननेवाले प्राणसाधक ! तू (मित्राय) पूरक प्राण के लिए, (अर्यम्णे) कुम्भक प्राण के लिए और (वरूथ्ये) शरीररूप गृह के हितकारी (वरुणाय) रेचक प्राण के सम्बन्ध में (सचथ्यम्) एक साथ मिलकर पढ़ने योग्य, (छन्द्यम्) छन्दोबद्ध (वचः) प्राण महिमापरक वचन का (प्र प्र) भली-भाँति उच्चारण कर। हे दूसरे प्राणसाधको ! तुम भी (राजसु) प्रदीप्त हुए पूर्वोक्त पूरक, कुम्भक एवं रेचक प्राणों के विषय में (स्तोत्रम्) प्राण का महत्त्व प्रतिपादित करनेवाले स्तोत्र का (गायत) गान करो ॥ प्राण का महत्त्व प्रतिपादन करनेवाले छन्दोबद्ध वेदमन्त्र अथर्व ११।४ में देखने चाहिए। जैसे अन्दर आनेवाले पूरक प्राण को हम अनुकूल करें, बाहर जानेवाले रेचक प्राण को अनुकूल करें आदि अथर्व० ११।४।८ ॥ तृतीय—राष्ट्र के पक्ष में। हे (ऋतावसो) राष्ट्रयज्ञ को धन माननेवाले राष्ट्रभक्त ! तू राजा रूप इन्द्र के साथ-साथ (मित्राय) देश-विदेश में मैत्री के सन्देश का प्रसार करनेवाले राज्याधिकारी के लिए, (अर्यम्णे) न्यायाध्यक्ष के लिए और (वरूथ्ये) सेना के लिए हितकारी (वरुणे) शत्रुनिवारक सेनाध्यक्ष के लिए (सचथ्यम्) सहगान के योग्य, (छन्द्यम्) छन्दोबद्ध गीत को (प्र प्र) भली-भाँति गा। हे दूसरे राष्ट्रभक्तो ! तुम भी (राजसु) पूर्वोक्त राज्याधिकारियों के विषय में (स्तोत्रम्) उन-उनके गुण वर्णन करनेवाले स्तोत्र को (गायत) गाओ ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ - परमात्मा की सृष्टि में जो वायु-सूर्य और अग्नि आदि, मनुष्य के शरीर में जो प्राण आदि और राष्ट्र में जो विभिन्न राज्याधिकारी हैं, उनके गुण-कर्मों का वर्णन करते हुए उनसे यथायोग्य लाभ सबको प्राप्त करने चाहिएँ ॥३॥
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