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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 306
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣यं꣢ वां꣣ म꣡धु꣢मत्तमः सु꣣तः꣢꣫ सोमो꣣ दि꣡वि꣢ष्टिषु । त꣡म꣢श्विना पिबतं ति꣣रो꣡अ꣢ह्न्यं ध꣣त्त꣡ꣳ रत्ना꣢꣯नि दा꣣शु꣡षे꣢ ॥३०६॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣य꣢म् । वा꣣म् । म꣡धु꣢꣯मत्तमः । सु꣣तः꣢ । सो꣡मः꣢꣯ । दि꣡वि꣢꣯ष्टिषु । तं । अ꣣श्विना । पिबतम् । तिरो꣡अ꣢ह्न्यम् । ति꣣रः꣢ । अ꣣ह्न्यम् । धत्त꣢म् । र꣡त्ना꣢꣯नि । दा꣣शु꣡षे꣢ ॥३०६॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं वां मधुमत्तमः सुतः सोमो दिविष्टिषु । तमश्विना पिबतं तिरोअह्न्यं धत्तꣳ रत्नानि दाशुषे ॥३०६॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम् । वाम् । मधुमत्तमः । सुतः । सोमः । दिविष्टिषु । तं । अश्विना । पिबतम् । तिरोअह्न्यम् । तिरः । अह्न्यम् । धत्तम् । रत्नानि । दाशुषे ॥३०६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 306
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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विषय - अगले मन्त्र में इन्द्र परमात्मा से अधिष्ठित आत्मा और मनरूप अथवा इन्द्र राजा से अधिष्ठित अध्यापक और उपदेशकरूप अश्विनों से याचना की गयी है।
पदार्थ -
हे (अश्विना) आत्मा और मन रूप अथवा अध्यापक और उपदेशक रूप अश्वी देवो ! (दिविष्टिषु) अध्यात्म-दीप्ति के यज्ञों में अथवा व्यवहार-यज्ञों में (अयम्) यह (मधुमत्तमः) अत्यन्त मधुर (सोमः) ज्ञान, कर्म, श्रद्धा, शान्ति आदि का रस अथवा सोमादि ओषधियों का रस (वाम्) तुम्हारे लिए (सुतः) मैंने तैयार किया है। (तिरोअह्न्यम्) पवित्रता में दिन को भी तिरस्कृत करनेवाले अर्थात् उज्ज्वल दिन से भी अधिक पवित्र (तम्) उस रस को, तुम (पिबतम्) पान करो, और (दाशुषे) देनेवाले मुझ यजमान के लिए (रत्नानि) उत्कृष्ट प्रेरणा, उत्कृष्ट संकल्प, उत्कृष्ट शिक्षा, उत्कृष्ट उपदेश आदि बहुमूल्य रमणीय धन (धत्तम्) प्रदान करो ॥४॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥४॥
भावार्थ - मन के शिवसंकल्पपूर्वक जीवात्मा जिस ज्ञान, कर्म, श्रद्धा, भक्ति आदि को परमात्मा के प्रति अर्पण की बुद्धि से करता है, वह बहुत फलदायक होता है। उसी प्रकार राष्ट्र में अध्यापक और उपदेशक के यथायोग्य सत्कार से उनके पास से बहुत अधिक ज्ञान, विज्ञान आदि प्राप्त किया जा सकता है ॥४॥
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