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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 311
ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
9
त्व꣡मि꣢न्द्र꣣ प्र꣡तू꣢र्तिष्व꣣भि꣡ विश्वा꣢꣯ असि꣣ स्पृ꣡धः꣢ । अ꣣शस्तिहा꣡ ज꣢नि꣣ता꣡ वृ꣢त्र꣣तू꣡र꣢सि꣣ त्वं꣡ तू꣢र्य तरुष्य꣣तः꣢ ॥३११॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । इ꣣न्द्र । प्र꣡तू꣢꣯र्तिषु । प्र । तू꣣र्त्तिषु । अभि꣢ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । अ꣣सि । स्पृ꣡धः꣢꣯ । अ꣣शस्तिहा꣢ । अ꣣शस्ति । हा꣢ । ज꣣निता꣢ । वृ꣣त्रतूः꣢ । वृ꣣त्र । तूः꣢ । अ꣣सि । त्व꣢म् । तू꣣र्य । तरुष्य꣢तः ॥३११॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्र प्रतूर्तिष्वभि विश्वा असि स्पृधः । अशस्तिहा जनिता वृत्रतूरसि त्वं तूर्य तरुष्यतः ॥३११॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । इन्द्र । प्रतूर्तिषु । प्र । तूर्त्तिषु । अभि । विश्वाः । असि । स्पृधः । अशस्तिहा । अशस्ति । हा । जनिता । वृत्रतूः । वृत्र । तूः । असि । त्वम् । तूर्य । तरुष्यतः ॥३११॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 311
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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विषय - अगले मन्त्र में परमात्मा वा राजा से शत्रुसंहार की प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ -
हे (इन्द्र) शूरवीर परमात्मन् वा राजन् ! (त्वम्) आप (प्रतूर्तिषु) झटापटीवाले देवासुरसंग्रामों में (विश्वाः) सब (स्पृधः) स्पर्धालु शत्रु-सेनाओं को (अभि-असि) परास्त करते हो। आप (अशस्तिहा) अप्रशस्ति को दूर करनेवाले, (जनिता) प्रशस्तिप्रद सद्गुणों और सच्चारित्र्यों को हृदय में वा राष्ट्र में उत्पन्न करनेवाले, (वृत्रतूः) पाप वा पापियों की हिंसा करनेवाले (असि) हो। (त्वम्) आप (तरुष्यतः) हिंसकों की (तूर्य) हिंसा करो ॥९॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष और कारण से कार्य का समर्थनरूप अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है। ‘तूर्’ की तीन बार आवृत्ति तथा तकार की ग्यारह बार आवृत्ति होने से वृत्त्यनुप्रास अलङ्कार है। परमात्मा और राजा का उपमानोपमेयभाव व्यङ्ग्य है ॥९॥
भावार्थ - जैसे परमात्मा मानस देवासुर-संग्रामों में काम, क्रोध आदि असुरों को परास्त कर, अप्रशस्ति को दूर कर, प्रशस्ति दिलानेवाले श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभावों को उत्पन्न कर, पापों का निर्मूलन कर स्तोता की कीर्ति का विस्तार करता है, वैसे ही राजा को भी राष्ट्र के अन्दर तथा बाहर के शत्रुओं का उन्मूलन करके, राष्ट्र की अप्रशस्ति का निवारण करके, प्रजाओं में सद्गुणों और सदाचार का प्रचार करके सुप्रबन्ध द्वारा कीर्ति उत्पन्न करनी चाहिए ॥९॥
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