Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 332
ऋषिः - अरिष्टनेमिस्तार्क्ष्यः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
6

त्य꣢मू꣣ षु꣢ वा꣣जि꣡नं꣢ दे꣣व꣡जू꣢तꣳ सहो꣣वा꣡नं꣢ तरु꣢ता꣢रं꣣ र꣡था꣢नाम् । अ꣡रि꣢ष्टनेमिं पृत꣣ना꣡ज꣢मा꣢शु꣣ꣳ स्व꣣स्त꣢ये꣣ ता꣡र्क्ष्य꣢मि꣣हा꣡ हु꣢वेम ॥३३२॥

स्वर सहित पद पाठ

त्य꣢म् । उ꣣ । सु꣢ । वा꣣जि꣡न꣢म् । दे꣣व꣡जू꣢तम् । दे꣣व꣢ । जू꣣तम् । सहोवा꣡न꣢म् । त꣣रुता꣡र꣢म् । र꣡था꣢꣯नाम् । अ꣡रि꣢꣯ष्टनेमिम् । अ꣡रि꣢꣯ष्ट । ने꣣मिम् । पृतना꣡ज꣢म् । आ꣣शु꣢म् । स्व꣣स्त꣡ये꣢ । सु꣣ । अस्त꣡ये꣢ । ता꣡र्क्ष्य꣢꣯म् । इ꣣ह꣢ । हु꣣वेम ॥३३२॥


स्वर रहित मन्त्र

त्यमू षु वाजिनं देवजूतꣳ सहोवानं तरुतारं रथानाम् । अरिष्टनेमिं पृतनाजमाशुꣳ स्वस्तये तार्क्ष्यमिहा हुवेम ॥३३२॥


स्वर रहित पद पाठ

त्यम् । उ । सु । वाजिनम् । देवजूतम् । देव । जूतम् । सहोवानम् । तरुतारम् । रथानाम् । अरिष्टनेमिम् । अरिष्ट । नेमिम् । पृतनाजम् । आशुम् । स्वस्तये । सु । अस्तये । तार्क्ष्यम् । इह । हुवेम ॥३३२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 332
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
Acknowledgment

पदार्थ -
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हम (त्यम् उ) उस (वाजिनम्) सब अन्नों वा धनों के स्वामी, (देवजूतम्) विद्वान् योगीजनों को प्राप्त अथवा प्रकाशक सूर्य, चाँद आदि तथा मन, चक्षु, श्रोत्र आदि में व्याप्त, (सहोवानम्) साहसी, बलवान् (रथानाम्) शरीररूप रथों के अथवा गतिशील पृथिवी, सूर्य, चन्द्र आदि लोकों के (तरुतारम्) चलानेवाले, (अरिष्टनेमिम्) अप्रतिहत दण्डशक्तिवाले, (पृतनाजम्) काम, क्रोध आदि की सेनाओं को परे फेंकने वा जीतनेवाले और सत्य, दया, उदारता आदि सद्गुणों की सेनाओं को प्राप्त करानेवाले, (आशुम्) शीघ्रकारी (तार्क्ष्यम्) विस्तीर्ण जगत् में निवास करनेवाले, सकलभुवनव्यापी, प्राप्तव्य परमात्मा को (इह) अपने इस जीवन में (स्वस्तये) कल्याण के लिए (सु हुवेम) भली-भाँति पुकारें ॥ द्वितीय—सेनापति के पक्ष में। हम (त्यम् उ) उस (वाजिनम्) अन्न आदि सात्त्विक आहार करनेवाले, बलवान्, संग्रामकारी, (देवजूतम्) राजा द्वारा युद्धार्थ प्रेरित, (सहोवानम्) क्षात्र-तेज से युक्त, (रथानाम्) युद्ध के विमानों को (तरुतारम्) उड़ानेवाले, (अरिष्टनेमिम्) अक्षत रथचक्रवाले, (पृतनाजम्) संग्राम में अपनी सेनाओं को भेजनेवाले, तथा शत्रु-सेनाओं को उखाड़ फेंकनेवाले, (आशुम्) शीघ्रकारी, आलस्यरहित (तार्क्ष्यम्) गरुड़ के समान आक्रमण करनेवाले अथवा वायु के समान स्वपक्ष को जीवन देनेवाले तथा परपक्ष का भञ्जन करनेवाले सेनापति को (इह) इस संग्रामकाल में (स्वस्तये) राष्ट्र के उत्तम अस्तित्व के लिए (सु हुवेम) भली-भाँति पुकारें अथवा उत्साहित करें ॥ तृतीय—वायु और विद्युत् के पक्ष में। हम (त्यम् उ) उस (वाजिनम्) अतिशय वेगवान्, (देवजूतम्) शिल्पविद्या के वेत्ता कुशल शिल्पियों द्वारा यान आदियों में प्रेरित, (सहोवानम्) अतिशय बलयुक्त, (रथानाम्) समुद्र, पृथिवी और अन्तरिक्ष में चलनेवाले वायु-यानों वा विद्युद्-यानों के (तरुतारम्) तराने या उड़ाने में साधनभूत, (पृतनाजम्) सांग्रामिक सेनाओं को देशान्तर में पहुँचाने में निमित्तभूत अथवा संग्राम को जीतने में साधनभूत, (आशुम्) यानों की तेज गति में निमित्तभूत, (तार्क्ष्यम्) अन्तरिक्षशायी वायु वा विद्युत् रूप अग्नि को (इह) इस शिल्पयज्ञ में (स्वस्तये) सुख के लिए (हुवेम) यान आदियों में प्रयुक्त करें ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘तरु, तारं’ में छेकानुप्रास और वकार, रेफ आदि की आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है ॥१॥

भावार्थ - सब मनुष्यों को चाहिए कि उपासना-यज्ञ में सकलजगद्व्यापी परमेश्वर का, राष्ट्रयज्ञ में गरुड़ के समान परपक्षाक्रान्ता सेनापति का और शिल्पयज्ञ में कलाकौशल के साधक वायु वा विद्युत् का ग्रहण और उपयोग करें ॥१॥

इस भाष्य को एडिट करें
Top