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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 332
ऋषिः - अरिष्टनेमिस्तार्क्ष्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
23
त्य꣢मू꣣ षु꣢ वा꣣जि꣡नं꣢ दे꣣व꣡जू꣢तꣳ सहो꣣वा꣡नं꣢ तरु꣢ता꣢रं꣣ र꣡था꣢नाम् । अ꣡रि꣢ष्टनेमिं पृत꣣ना꣡ज꣢मा꣢शु꣣ꣳ स्व꣣स्त꣢ये꣣ ता꣡र्क्ष्य꣢मि꣣हा꣡ हु꣢वेम ॥३३२॥
स्वर सहित पद पाठत्य꣢म् । उ꣣ । सु꣢ । वा꣣जि꣡न꣢म् । दे꣣व꣡जू꣢तम् । दे꣣व꣢ । जू꣣तम् । सहोवा꣡न꣢म् । त꣣रुता꣡र꣢म् । र꣡था꣢꣯नाम् । अ꣡रि꣢꣯ष्टनेमिम् । अ꣡रि꣢꣯ष्ट । ने꣣मिम् । पृतना꣡ज꣢म् । आ꣣शु꣢म् । स्व꣣स्त꣡ये꣢ । सु꣣ । अस्त꣡ये꣢ । ता꣡र्क्ष्य꣢꣯म् । इ꣣ह꣢ । हु꣣वेम ॥३३२॥
स्वर रहित मन्त्र
त्यमू षु वाजिनं देवजूतꣳ सहोवानं तरुतारं रथानाम् । अरिष्टनेमिं पृतनाजमाशुꣳ स्वस्तये तार्क्ष्यमिहा हुवेम ॥३३२॥
स्वर रहित पद पाठ
त्यम् । उ । सु । वाजिनम् । देवजूतम् । देव । जूतम् । सहोवानम् । तरुतारम् । रथानाम् । अरिष्टनेमिम् । अरिष्ट । नेमिम् । पृतनाजम् । आशुम् । स्वस्तये । सु । अस्तये । तार्क्ष्यम् । इह । हुवेम ॥३३२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 332
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में परमात्मा की स्तुति, सेनापतित्व और शिल्प विषय का वर्णन है।
पदार्थ
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हम (त्यम् उ) उस (वाजिनम्) सब अन्नों वा धनों के स्वामी, (देवजूतम्) विद्वान् योगीजनों को प्राप्त अथवा प्रकाशक सूर्य, चाँद आदि तथा मन, चक्षु, श्रोत्र आदि में व्याप्त, (सहोवानम्) साहसी, बलवान् (रथानाम्) शरीररूप रथों के अथवा गतिशील पृथिवी, सूर्य, चन्द्र आदि लोकों के (तरुतारम्) चलानेवाले, (अरिष्टनेमिम्) अप्रतिहत दण्डशक्तिवाले, (पृतनाजम्) काम, क्रोध आदि की सेनाओं को परे फेंकने वा जीतनेवाले और सत्य, दया, उदारता आदि सद्गुणों की सेनाओं को प्राप्त करानेवाले, (आशुम्) शीघ्रकारी (तार्क्ष्यम्) विस्तीर्ण जगत् में निवास करनेवाले, सकलभुवनव्यापी, प्राप्तव्य परमात्मा को (इह) अपने इस जीवन में (स्वस्तये) कल्याण के लिए (सु हुवेम) भली-भाँति पुकारें ॥ द्वितीय—सेनापति के पक्ष में। हम (त्यम् उ) उस (वाजिनम्) अन्न आदि सात्त्विक आहार करनेवाले, बलवान्, संग्रामकारी, (देवजूतम्) राजा द्वारा युद्धार्थ प्रेरित, (सहोवानम्) क्षात्र-तेज से युक्त, (रथानाम्) युद्ध के विमानों को (तरुतारम्) उड़ानेवाले, (अरिष्टनेमिम्) अक्षत रथचक्रवाले, (पृतनाजम्) संग्राम में अपनी सेनाओं को भेजनेवाले, तथा शत्रु-सेनाओं को उखाड़ फेंकनेवाले, (आशुम्) शीघ्रकारी, आलस्यरहित (तार्क्ष्यम्) गरुड़ के समान आक्रमण करनेवाले अथवा वायु के समान स्वपक्ष को जीवन देनेवाले तथा परपक्ष का भञ्जन करनेवाले सेनापति को (इह) इस संग्रामकाल में (स्वस्तये) राष्ट्र के उत्तम अस्तित्व के लिए (सु हुवेम) भली-भाँति पुकारें अथवा उत्साहित करें ॥ तृतीय—वायु और विद्युत् के पक्ष में। हम (त्यम् उ) उस (वाजिनम्) अतिशय वेगवान्, (देवजूतम्) शिल्पविद्या के वेत्ता कुशल शिल्पियों द्वारा यान आदियों में प्रेरित, (सहोवानम्) अतिशय बलयुक्त, (रथानाम्) समुद्र, पृथिवी और अन्तरिक्ष में चलनेवाले वायु-यानों वा विद्युद्-यानों के (तरुतारम्) तराने या उड़ाने में साधनभूत, (पृतनाजम्) सांग्रामिक सेनाओं को देशान्तर में पहुँचाने में निमित्तभूत अथवा संग्राम को जीतने में साधनभूत, (आशुम्) यानों की तेज गति में निमित्तभूत, (तार्क्ष्यम्) अन्तरिक्षशायी वायु वा विद्युत् रूप अग्नि को (इह) इस शिल्पयज्ञ में (स्वस्तये) सुख के लिए (हुवेम) यान आदियों में प्रयुक्त करें ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘तरु, तारं’ में छेकानुप्रास और वकार, रेफ आदि की आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है ॥१॥
भावार्थ
सब मनुष्यों को चाहिए कि उपासना-यज्ञ में सकलजगद्व्यापी परमेश्वर का, राष्ट्रयज्ञ में गरुड़ के समान परपक्षाक्रान्ता सेनापति का और शिल्पयज्ञ में कलाकौशल के साधक वायु वा विद्युत् का ग्रहण और उपयोग करें ॥१॥
पदार्थ
(त्यम्-उ) उस ही (सु वाजिनम्) हमारे अमृत अन्नभोग वाले (देवजूतम्) मुमुक्षुओं के प्रीत—प्रेमपात्र (सहोवानम्) सहस्वान्—साहसी बलवान् (रथानां तरुतारम्) गमनशील लोकों के शरीररथों के यथावत् चलगति या कर्मगति के प्रेरक (अरिष्टनेमिम्) किसी भी प्रकार न हिंसित होने वाले प्रगति चक्र वाले (पृतनाजम्) मानवों की विरोधी प्रवृत्तियों पर जय पाने वाले—(आशुम्) व्यापनशील (तार्क्ष्यम्) विश्व को गति देने वाले वायुस्वरूप परमात्मा को “वायुर्वै तार्क्ष्यः” [कौ॰ ३०.५] (स्वस्तये-इह हुवेम) कल्याणार्थ इस जीवन में आमन्त्रित करते हैं।
भावार्थ
परमात्मा उत्तम अमृतान्न भोग वाला मुमुक्षु का प्रेमपात्र बलवान् पृथिवी आदि पिण्डों तथा शरीरों का चलगति कर्मगति का प्रेरक अबाधित रक्षण शक्तियों वाला विरोधी प्रवृत्ति पर जय पाने वाला है उसको हम अपने हृदय में कल्याणार्थ इस जीवन में आमन्त्रित करते रहें॥१॥
विशेष
ऋषिः—अरिष्टनेमिस्तार्क्ष्यः (अहिंसित रक्षणपरिधान जीवनप्रद परमात्मा जिसका है ऐसा उपासक)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>
विषय
एक नेता का निजु जीवन, अरिष्टनेमि-तार्क्ष्य
पदार्थ
(त्यम्) = उसे (उ) = निश्चय से (इह) = यहाँ अपने जीवन में (आहुवेम) = सब ओर से अर्थात् सब मिलकर (हुवेम) = पुकारते हैं, अर्थात् प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हमें ऐसा नेता प्राप्त कराइये:-
१. (सुवाजिनम्) = जो उत्तम गतिवाला है [वज् गतौ ] । जिसका जीवन क्रियाशील है और क्रिया करने का प्रकार भी ऐसा मधुर है कि उसकी क्रिया से किसी की हानि नहीं होती। उसका ध्यान रहता है कि 'मधुमन्मे निष्क्रमणं, मधुमन्मे परायणम्' मेरा जाना भी मधुर हो, आना भी मधुर हो।
२. (देवजूतम्) = वह अपनी क्रियाओं में देवताओं से प्रेरणा प्राप्त करता है। सूर्य-चन्द्रमा की भाँति नियमित गति से चलता है तो पृथिवी के समान क्षमाशील बनता है और समुद्र के समान गम्भीर होता है। अग्नि के समान तेजस्वी और जल के समान रसमय । इस प्रकार देवांशों से ही उसका जीवन बना हुआ प्रतीत होता है।
३. (सहोवानम्) = यह बलवाला हो । निर्बल चाहता हुआ भी कुछ नहीं कर सकता। अशक्त जीवन कुछ नहीं कर सकता। अशक्त जीवन कुछ भी करने में शक्त नहीं ।
४. (रथानाम् तरुतारम्) = प्रत्येक व्यक्ति अपने शरीररूप रथ पर आरूढ़ हुआ हुआ आगे और आगे बढ़ रहा है। यह उन सब रथों को लाँघ जानेवाला है। उन्नतिपथ पर सबसे आगे बढ़ जानेवाला है। 'अति समं क्राम' इस उपदेश को यह क्रिया में अन्वित करता है।
५. (अरिष्टनेमिम्) = इसके जीवन-चक्र की परिधि कभी हिंसित नहीं होती है, अर्थात् इसका जीवन बहुत ही मर्यादित होता है। यह धर्म के मार्ग से रञ्चमात्र भी विचलित नहीं होता।
६. (पृतजानम्) =' पृतना' संग्राम का नाम है। वासनाओं से चल रहे सनातन संग्राम में यह अज= गतिशीलता से वासनारूप शत्रुओं को परे फेंकनेवाला होता है।
७. (आशुम्) = यह कार्यों में शीघ्रता से व्याप्त होनेवाला होता है। 'प्रमाद, आलस्य, निद्रा' इसके समीप नहीं फटकते। यह प्रत्येक कार्य को स्फूर्ति के साथ [promptly ] करता है।
८. (तार्क्ष्यम्) = [तृक्ष गतौ] हम उस नेता को पुकारते हैं जोकि गतिशील है- गति का ही पुञ्ज है, गति जिसका स्वभाव बन गई है।
ऐसे नेता को हम इसलिए चाहते हैं कि (स्वस्तये) = हमारी स्थिति उत्तम हो, हमारा कल्याण हो ।
यहाँ प्रारम्भ में ‘सुवाजिनम्' शब्द है, समाप्ति पर ‘तार्क्ष्यम्'। दोनों की भावना ‘गति' है। वस्तुतः उत्तम जीवन का प्रारम्भ भी गति है और समाप्ति भी गति है। गतिमय जीवन ही उत्तम है- उत्तम क्या है, गतिमयता ही जीवन है। गति नहीं तो जीवन नहीं । आर्य शब्द का अर्थ भी तो ‘गतिशील' ही है, अत: हम गतिमय 'तार्क्ष्य' तो हों ही, परन्तु इस गतिमधता में 'अरिष्टनेमि' हों= अहिंसित मर्यादावाले हों। सदा मर्यादित गतिवाले हों। यह मर्यादित गतिवाला 'अरिष्टनेमि तार्क्ष्य' ही इस मन्त्र का ऋषि है।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हम लोग ( त्यं ) = उस ( वाजिनं ) = ज्ञान, वेग, कर्म से युक्त , ( देबजूतं ) = देवों, विद्वानों और इन्द्रियों से पूजित, तर्पित, ( सहोवानं ) = सहनशीलता एवं बल से युक्त ( स्थानां तरुतारं ) = इन स्थरूप देहो या गतिशील नक्षत्रों और ग्रह उपग्रहों को गति तथा परस्पराकर्षण की अद्भुत व्यवस्था द्वारा चलाने हारे, ( अरिष्टनेमिं ) = शुभ मार्ग में सबको नियम में संचालन करने हारे, ( पृतनाजं ) = सब मनुष्य प्रजाओं के भीतर प्रकट होने हारे, ( आशुं ) = सर्वत्र व्यापक या कर्मफल के दाता या भोक्ता ( तार्क्ष्यम् ) = अत्यन्त वेगवान् या व्यापक परमात्मा और आत्मा का ( इह ) = यहां इस अन्तःकरण में ( आहुवेम ) = आह्वान करते हैं ।
टिप्पणी
३३२ – तूर्णमश्नुते इति तार्क्ष्य:। तार्क्ष्य इति अश्वनाम । नि० १ । १४ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - अरिष्टनेमिस्तार्क्ष्यः।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - त्रिष्टुभ् ।
स्वरः - धैवतः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मस्तुतिसैनापत्यशिल्पविषयमाह।
पदार्थः
प्रथमः—परमात्मपरः। वयम् (त्यम् उ) तम् (वाजिनम्) सर्वेषामन्नानां धनानां वा स्वामिनम्, (देवजूतम्२) देवैर्विद्वद्भिः योगिभिः जूतं प्राप्तम्, यद्वा देवान् प्रकाशकान् सूर्यचन्द्रादीन् मनश्चक्षुःश्रोत्रादीन् वा जूतं गतम्, (सहोवानम्) सहस्वन्तम् बलवन्तमित्यर्थः। सहस् शब्दात् ‘छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ’। अ० ५।२।१०९ वा० इत्यनेन मत्वर्थीयो वनिप्। (रथानाम्) शरीररथानाम् यद्वा रंहणशीलानां पृथिवीसूर्यचन्द्रादीनां लोकानाम्। रथो रंहतेर्गतिकर्मणः। निरु० ८।११। (तरुतारम्३) गमयितारम्। तॄ प्लवनसंतरणयोः। ‘ग्रसितस्कभित०’ अ० ७।२।३४ इति उडागमो निपात्यते। (अरिष्टनेमिम्) अप्रतिहतदण्डम्। नेमिरिति वज्रनाम। निघं० २।२०। (पृतनाजम्)४ पृतनानां कामक्रोधादिसेनानाम् अजितारं प्रक्षेप्तारं जेतारं वा, यद्वा पृतनाः सत्यदयादाक्षिण्यादिसद्गुणानां सेनाः अजति प्रापयतीति तम् (आशुम्) शीघ्रकारिणम् (तार्क्ष्यम्) सकलभुवनव्यापिनम् अभिगमनीयं वा परमात्मानम्। तीर्णे विस्तीर्णे जगति क्षियति निवसतीति तार्क्ष्यः। यद्वा गत्यर्थात् तृक्षतेर्ण्यति तार्क्ष्यः, अभिगमनीयः परमात्मा। (इह) अस्माकम् अस्मिन् जीवने। संहितायां ‘निपातस्य च’ इति दीर्घः। (स्वस्तये) कल्याणार्थम् (सु हुवेम) सम्यग् आह्वयेम। तमूषु इत्यत्र ‘इकः सुञि’ अ० ६।३।१३४ इति दीर्घः। ‘सुञः अ० ८।३।१०७’ इति षत्वम् ॥ अथ द्वितीयः—सेनापतिपरः। वयम् (त्यम् उ) तम् (वाजिनम्) अन्नादिसात्त्विकाहारम्, बलवन्तम्, संग्रामकारिणं वा, (देवजूतम्) देवेन राज्ञा जूतं युद्धार्थं प्रेरितम्, (सहोवानम्) सहः शत्रुपराजयशीलं क्षात्रं तेजः तद्वन्तम्, (रथानाम्) युद्धे उपयुज्यमानानां विमानानाम् (तरुतारम्) प्लवयितारम्, (अरिष्टनेमिम्) अक्षतरथचक्रम्, (पृतनाजम्) संग्रामे स्वसेनानाम् प्रेरकम्, शत्रुसेनानां प्रक्षेप्तारं वा, (आशुम्) क्षिप्रकारिणम्, न त्वलसम्, (तार्क्ष्यम्) गरुडपक्षिवदाक्रान्तारम्, वायुवत् स्वपक्षीयाणां जीवनदायिनम् परपक्षीयाणां भञ्जकं वा सेनापतिम् (इह) अस्मिन् संग्रामकाले (स्वस्तये) राष्ट्रस्य पूजितास्तित्वाय। स्वस्तीत्यविनाशिनाम। अस्तिरभिपूजितः स्वस्तीति। निरु० ३।२०। (सु हुवेम) सम्यगाह्वयेम, सम्यगुत्साहयेम वा ॥ अथ तृतीयः—वायुविद्युत्परः। वयम् (त्यम् उ) तम् (वाजिनम्) तीव्रवेगम्, (देवजूतम्) देवैः शिल्पविद्यावेत्तृभिः कुशलैः शिल्पिभिः यानादिषु प्रेरितम्, (सहोवानम्) अतिशयबलयुक्तम्, (रथानाम्) समुद्रपृथिव्यन्तरिक्षयायिनां वायुरथानां विद्युद्यानानां वा (तरुतारम्) तरणसाधनभूतं प्लवनसाधनभूतं वा, (पृतनाजम्) सांग्रामिकसेनानां देशान्तरप्रापणे निमित्तभूतम्, संग्रामजयसाधनभूतं वा। पृतना इति संग्रामनाम। निघं० २।१७। सेनार्थे तु प्रसिद्धमेव। (आशुम्) यानानां क्षिप्रगमनहेतुभूतम् (तार्क्ष्यम्) अन्तरिक्षशायिनं वायुं विद्युदग्निं वा (इह) अस्मिन् शिल्पयज्ञे (स्वस्तये) सुखाय (हुवेम) यानादिषु प्रयुञ्जीमहि ॥१॥ यास्काचार्य इमामृचमेवं व्याचष्टे—तार्क्ष्यस्त्वष्ट्रा व्याख्यातः। तीर्णे अन्तरिक्षे क्षियति, तूर्णमर्थं रक्षति अश्नोतेर्वा। तं भृशमन्नवन्तम्। जूतिर्गतिः प्रीतिर्वा। देवजूतं देवगतं देवप्रीतं वा। सहस्वन्तम्। तारयितारं रथानाम्। अरिष्टनेमिम् पृतनाजितम्, आशुं स्वस्तये तार्क्ष्यमिह ह्वयेमेति कमन्यं मध्यमादेवमवक्ष्यत्—इति। निरु० १०।२७ ॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। ‘तरु-तारं’ इत्यत्र छेकानुप्रासः। वकाररेफाद्यावृत्तौ च वृत्त्यनुप्रासः ॥१॥
भावार्थः
सर्वैर्जनैरुपासनायज्ञे सकलजगद्व्यापी तार्क्ष्यः परमेश्वरो, राष्ट्रयज्ञे गरुडवत् परपक्षाक्रान्ता सेनापतिः, शिल्पयज्ञे च कलाकौशलसाधको वायुर्विद्युदग्निर्वा ग्राह्य उपयोक्तव्यश्च ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १०।१७८।१ ‘सहावानं’ इति पाठः। अथ० ७।८५।१, ऋषिः अथर्वा, ‘पृतनाजि’ इति पाठः। २. देवजूतम्। देवैर्मरुदादिभिरनुगतम्—इति वि०। देवैः स्तोतृभिः प्रेरितम्—इति भ०। देवैः सोमाहरणाय प्रेरितम्। जु इति गत्यर्थः सौत्रो धातुः, अस्मात् क्तः, पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम्। यद्वा देवैः प्रीयमाणं तर्प्यमाणम्—इति सा०। ३. तरुतारम् हन्तारम् रथानां शत्रूणां स्वभूतानाम्—इति वि०। हिंसितारं रथानां प्रतिरथानाम्। अथवा रथानां गन्तॄणां तरुतारं गन्तृतमम्। तरतिर्गतिकर्माणि—इति भ०। रथानाम् अन्यदीयानां तरुतारं संग्रामे तारकम्। यद्वा रंहणशीला अमी इमे लोका रथाः, तान् सोमाहरणसमये शीघ्रं तरीतारम्—इति सा०। ४. पृतनाजम्। पृतनेति संग्रामनाम। तस्मादुत्तरस्य जयतेर्ड प्रत्ययः। पृतनाजं संग्रामाणां जेतारमित्यर्थः—इति वि०। पृतनानाम् अजितारम् क्षेप्तारम्। अज गतिक्षेपणयोः—इति भ०। पृतनानां शत्रुसेनानाम् आजितारं प्रगमयितारं जेतारं वा। अज गतिक्षेपणयोः अस्मात् क्विप्—इति सा०।
इंग्लिश (2)
Meaning
We invoke for our weal in our heart, God, Full of knowledge. Praised by the sages, highly Tolerant, the Revolver of heavenly bodies, the Leader of mankind on the right path according to His laws, present in the hearts of His subjects. All-pervading and Most active.
Meaning
For the sake of good and all round well being of life, we invoke and study that wind and electric energy of the middle regions which is fast and victorious, moved by divine nature, powerful, shaker of the clouds and energiser of sound waves, inviolable, war-like heroic and most dynamic, moving at the speed of energy. (Rg. 10-178-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (त्यम् उ) તે નિશ્ચય (सु वाजिनम्) અમારા અમૃત અન્નભોગ વાળા (देवजूतम्) મુમુક્ષુઓની પ્રીત = પ્રેમપાત્ર (सहोवानम्) સહસ્વાન =સર્પસી બળવાન (रथानां तरुतारम्) ગમનશીલ લોકોનાં શરીર રથોને યથાવત્ ગતિશીલ અર્થાત્ કર્મગતિના પ્રેરક (अरिष्टनेमिम्) કોઈપણ રીતે હિંસિત ન થનાર પ્રગતિ ચક્રવાળા (पृतनाजम्) મનુષ્યોની વિરોધી પ્રવૃત્તિઓ પર વિજય કરનાર, (आशुम्) વ્યાપનશીલ (तार्क्ष्यम्) વિશ્વને ગતિ આપનાર વાયુ સ્વરૂપ પરમાત્માને (स्वस्तये इह हुवेम) કલ્યાણ માટે આ જીવનમાં આમંત્રિત કરીએ છીએ. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મા ઉત્તમ અમૃતાન્ન ભોગવાળો, મુમુક્ષુનો પ્રેમપાત્ર, બળવાન, પૃથિવી આદિ પિંડો તથા શરીરોમાં ગતિશીલ અને કર્મગતિનો પ્રેરક, અબાધિત રક્ષણ શક્તિઓવાળો અને વિરોધી પ્રવૃત્તિઓ પર વિજય પામનાર છે. તેને અમે પોતાનાં હૃદયમાં, કલ્યાણને માટે આ જીવનમાં આમંત્રિત કરીએ છીએ. (૧)
उर्दू (1)
Mazmoon
اُسی مشہور عالم اِیشور کو ہی پُوجیں
Lafzi Maana
(سُوتئے) اپنے سُکھ آرام کے لئے (ایہہ تیمّ اوسُو آہُوویم) اِسی جیون میں ہی اُسی پر سِدّھ بھگوان کا اُتم ودِہی اچھے طریقئہ کار سے آواہن کریں، جو پرمیشور کہ ان گیان وِگیان اور طاقتوں کا مالک ہے، (دیو جُوتم) سُوریہ وغیرہ کا دیوتاؤں اور وِدوانوں کے آتماؤں میں پریرنا دے رہا ہے، (سہو وانم رتھا نام تروُتارم) سہن شیل ہو کر ہمارے شریروں کی گاڑی کو چلانے والا ہے، (ارشٹ نمیم، پرتناجم) سنسا چکر کو اڈِگ ہو کر چلا رہا ہے او شیطانی عناصر اور اندرونی بُرے جذبات پر فتح پائے ہوئے ہے، (آشُوم تارکھیّم) اپنے کاموں کو تیزی سے نِپٹاتے ہوئے بھی سب جگہ ظاہر ظہور ہے۔
Tashree
گیان، اَنّ، بَل کا جو سوامی سب کا سِرجن ہار ہے، اپنے سُکھ آرام کا سمجھو وہی آدھار ہے۔
मराठी (2)
भावार्थ
सर्व माणसांनी उपासना यज्ञात संपूर्ण जगत्व्यापी परमेश्वराचे, राष्ट्रयज्ञात गरुडाप्रमाणे शत्रूवर आक्रमण करणाऱ्या सेनापतीचे व शिल्पयज्ञात कलाकौशल्याचा साधक वायु किंवा विद्युतचे ग्रहण करावे व त्यांचा उपयोग करावा ॥१॥
विषय
परमेश्वराची स्तुती, सेनापती आणि शिल्यविषय -
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) (परमात्मपर अर्थ) - आम्ही (त्यम् उ) त्या (वाजिनम्) अन्न आणि धनाचा जो स्वामी, (देवपूतम्) विद्वान योगी ज्यास प्राप्त करतात अथवा प्रकषाक सूर्य,चंद्र आदीमध्येच मन, नेत्र आदीमध्ये जो व्याप्त आहे, (सहो वायम्) जो, साहसी व बली आहे, त्या परमेश्वराला आम्ही उपासकांनी कल्याणाकरिता हाक द्यावी. तसेच आम्ही (रथानाम्) शरीररूप रथांचा अथवा गतिशील पृथ्वी, सूर्य, चंद्र आदी लोकांचा जो (तरुतारम्) निर्माण करणारा वा त्यांचे संचालन करणारा, (अरिष्टनेभिम्) ज्याची दंडशक्ती अप्रतिहृत, अबाध आहे, (पृतनाजम्) काम, क्रोधादीच्या सैन्याला जो दर फेकतो आणि सत्य, दया, औदार्य आदी सद्गुणांच्या सैन्याला जो प्रोत्साहन देतो, जो (आशुम्) शीघ्रकारी असून (तार्क्ष्यम्) विस्तीर्ण जगात निवास करणारा, समस्त भुवनात व्यापक आहे. अशा त्या प्राप्तव्य परमेश्वराला आम्हा उपासकांनी (इह) आपल्या या जीवनात (स्वस्तये) आपल्या उद्धारासाठी (सु हुवेम) मनापासून हाक मारावी, हेच योग्य आहे.।। द्वितीय अर्थ - (सेनापतिपर अर्थ) - आम्ही (प्रजाजन) (त्यम्) त्या (सेनापतीचे रक्षणासाठी हाक देत आहोत) तो कसा आहे / ?(वाजिनम्) तो वेगाने चाल करून वा धावून येणारा, सात्त्विक आहार घेणारा, बलवान व योद्धा आहे. त्या (देवजूतम्) राजाद्वारा ज्याला युद्धासाठी पाठविले गेले आहे. जो (सहोवानम्) क्षात्र- तेजयुक्त असून (रथानाम्) युद्धाचे विमान, यान आदी (तुरतारम्) संचालन करणारा आहे, जो (अरिष्ट नेमिम्) अक्षत रथचक्र असणारा असून (पृतवाजम्) संग्रामासाठी आपले सैन्य पाठविणारा वा शत्रुसैन्य ध्वस्त करणारा आहे, अशा (आशुम्) शीघ्रकारी, निरालस (तार्क्ष्यम्) गरुडाप्रमाणे आक्रमण करणाऱ्या व वायुप्रमाणे आपल्या सैन्याला जीवन देणाऱ्या आणि शत्रुपक्ष- भंजक सेनापतीला (इह) आम्ही प्रजाजन या संग्रामकाळी (स्वस्तये) राष्ट्राच्या रक्षणासाठी (सु हुवेम) विश्वासाने हाक मारतो वा त्यांना प्रोत्साहित करतो.।। तृतीय अर्थ - (वायु आणि विद्युत पर अर्थ) - आम्ही (सर्व राष्ट्रवासीजन) (त्यम्) त्या (वाजिनम्) अतिशय वेगवान (देवजूतम्) शिल्पविद्येचे ज्ञाता कुशल शिल्पीजनांद्वारे यान आदींमध्ये प्रयुक्त होणाऱ्या (सहोवानम्) अत्यंत शक्तिशाली (रथानाम्) समुद्र, भूमी व आकाशात चालणारे वायुयानात अथवा विद्युत संचालित यान (हाक तारम्) चालविणाऱ्या (वायु वा विद्युतरूप अग्नीचा यानादीमध्ये प्रयोग करावा) तसेच (पृतनाजन्) संग्रामासाठी आवश्यक त्या सैन्याला दूरस्य देशा- प्रदेशाला नेणाऱ्या अथवा युद्धात विजय प्राप्तीसाठी साधन भूत (आशुम्) यानांना आवश्यक तीव्र गती देणाऱ्या (तार्क्ष्यम्) आकाशस्थ वायूचा अथवा विद्युत अग्नीचा आम्ही (शिल्पी- अभियंताजनांनी) (इह) या शिल्प यज्ञामध्ये (स्वस्तये) सुख सोयीकरिता (हुवेम) यानांमध्ये उपयोग करावा. ।। १।।
भावार्थ
सर्व जनांचे कर्तव्य आहे की उपासना- यज्ञात सकल जमद्वव्यापी परमेश्वराचे ध्यान करावे. राष्ट्र यज्ञात गरूडाप्रमाणे झेप घेणाऱ्या शत्रु सैन्यहन्ता सेनापतीचे सहाय्य घ्यावे आणि शिल्प यज्ञात कला कौशलाचे जे साधन त्या वायूचा व विद्युतेचा उपयोग घ्यावा. ।। १।।
विशेष
या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ङ्गतरु तारंफ मध्ये छेकानुप्रास आणि ङ्गव, रफ आदी वर्णांच्या आवृत्तीमुळे वृत्त्यनुप्रास अलंकार आहे. ।। १।।
तमिल (1)
Word Meaning
இந்த பிரசித்தமான [1]திருக்ஷமகனான [2]சுபர்ணனை க்ஷேமத்திற்காக அழைப்போம்.அவன் வன்மையுள்ளவன், தேவர்களின் தூதன், நட்போடுள்ளவன். அன்னிய (ரதங்களைத் தாண்டுபவன்). வலிமையான ரதமுடையவன். சத்துருக்களை ஜயிப்பவன்.
FootNotes
[1] திருக்ஷமகனான - பலத்தின்
[2] சுபர்ணனை - ஆத்மாவை
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