Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 337
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
8
यं꣢ वृ꣣त्रे꣡षु꣢ क्षि꣣त꣢य꣣ स्प꣡र्ध꣢माना꣣ यं꣢ यु꣣क्ते꣡षु꣢ तु꣣र꣡य꣢न्तो ह꣡व꣢न्ते । य꣡ꣳ शूर꣢꣯सातौ꣣ य꣢म꣣पा꣡मुप꣢꣯ज्म꣣न्यं꣡ विप्रा꣢꣯सो वा꣣ज꣡य꣢न्ते꣣ स꣡ इन्द्रः꣢꣯ ॥३३७
स्वर सहित पद पाठय꣢म् । वृ꣣त्रे꣡षु꣢ । क्षि꣣त꣡यः꣣ । स्प꣡र्ध꣢꣯मानाः । यम् । यु꣣क्ते꣡षु꣢ । तु꣣र꣡य꣢न्तः । ह꣡व꣢꣯न्ते । यम् । शू꣡र꣢꣯सातौ । शू꣡र꣢꣯ । सा꣣तौ । य꣢म् । अ꣣पा꣢म् । उ꣡प꣢꣯ज्मन् । उ꣡प꣢꣯ । ज्म꣣न् । य꣢म् । वि꣡प्रा꣢꣯सः । वि । प्रा꣣सः । वाज꣡य꣢न्ते । सः । इ꣡न्द्रः꣢꣯ ॥३३७॥
स्वर रहित मन्त्र
यं वृत्रेषु क्षितय स्पर्धमाना यं युक्तेषु तुरयन्तो हवन्ते । यꣳ शूरसातौ यमपामुपज्मन्यं विप्रासो वाजयन्ते स इन्द्रः ॥३३७
स्वर रहित पद पाठ
यम् । वृत्रेषु । क्षितयः । स्पर्धमानाः । यम् । युक्तेषु । तुरयन्तः । हवन्ते । यम् । शूरसातौ । शूर । सातौ । यम् । अपाम् । उपज्मन् । उप । ज्मन् । यम् । विप्रासः । वि । प्रासः । वाजयन्ते । सः । इन्द्रः ॥३३७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 337
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
Acknowledgment
विषय - अगले मन्त्र में इन्द्र का परिचय प्रस्तुत किया गया है।
पदार्थ -
प्रथम—राजा के पक्ष में। (वृत्रेषु) अविद्या, भ्रष्टाचार आदियों के व्याप्त हो जाने पर (स्पर्धमानाः) उन पर विजय पाना चाहते हुए (क्षितयः) प्रजाजन (यं हवन्ते) जिस जननायक को पुकारते हैं, (युक्तेषु) किन्हीं महान् कर्मों के प्रारम्भ करने पर (तुरयन्तः) कार्यसिद्धि के लिए शीघ्रता करते हुए प्रजाजन (यं हवन्ते) जिस कार्यसाधक को पुकारते हैं, (शूरसातौ) शूरों को विजयोपलब्धि करानेवाले संग्राम में (यं हवन्ते) जिस वीर को पुकारते हैं, (अपाम्) सरोवर, नहर आदियों के (उपज्मन्) निर्माण के लिए (यं हवन्ते) जिस राष्ट्रनिर्माता को पुकारते हैं, (विप्रासः) ज्ञानी ब्राह्मण लोग (यं वाजयन्ते) जिसे अपना परामर्श देकर बलवान् करते हैं, (सः) वह दुःखविदारक, सुखप्रदाता राजा (इन्द्रः) इन्द्र कहाता है ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। (वृत्रेषु) योगमार्ग में व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य आदि विघ्नों के उपस्थित होने पर (स्पर्धमानाः) उन्हें जीतने की इच्छावाले योगीजन (यं हवन्ते) जिस सहायक को पुकारते हैं, (युक्तेषु) इन्द्रिय, मन, प्राण आदियों के योग में लग जाने पर (तुरयन्तः) योगसिद्धि पाने के लिए शीघ्रता करते हुए योगीजन (यं हवन्ते) जिस सिद्धिप्रदाता को पुकारते हैं, (शूरसातौ) आन्तरिक देवासुर-संग्राम के उपस्थित होने पर (यं हवन्ते) जिस विजयप्रदाता को पुकारते हैं, (अपाम्) प्राणों के (उपज्मन्) उपरले-उपरले चक्र में चंक्रमण करने के निमित्त (यं हवन्ते) जिस योगक्रियाओं में सहायक को पुकारते हैं, (यम्) और जिसकी (विप्रासः) ज्ञानी योगीजन (वाजयन्ते) अर्चना करते हैं, (सः) वह धारणा-ध्यान-समाधि से प्राप्तव्य परमेश्वर (इन्द्रः) इन्द्र कहलाता है ॥६॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥६॥
भावार्थ - वेदों में इन्द्र नाम से जिसका बहुत स्थानों पर वर्णन है, वह विघ्नविदारक, आरम्भ किये कार्यों में सिद्धिप्रदायक, देवासुरसंग्रामों में विजयप्रदाता, जलधाराओं को प्रवाहित करानेवाला, ज्ञानीजनों की स्तुति का पात्र ब्रह्माण्ड में परमेश्वर तथा राष्ट्र में राजा है। उनकी यथायोग्य उपासना प्रार्थना और सत्कार से अभीष्ट लाभ सबको उनसे प्राप्त करने चाहिएँ ॥६॥ इस मन्त्र पर विवरणकार ने यह अपनी कल्पना से ही घड़ा हुआ इतिहास लिखा है कि इन्द्र के अत्यन्त भक्त होने के कारण इन्द्र का रूप धारण किये हुए वामदेव ऋषि को जब असुर पकड़कर मारने लगे तब वह इस मन्त्र को कह रहा है कि इन्द्र मैं नहीं हूँ, इन्द्र तो ऐसा-ऐसा है। इसी प्रकार का इतिहास ‘स जनास इन्द्रः’ इस प्रकार इन्द्र का परिचय देनेवाले, गृत्समद ऋषि से दृष्ट ऋग्वेदीय द्वितीय मण्डल के १२वें सूक्त पर गृत्समद के नाम से किन्हीं लोगों ने कल्पित कर लिया था, जो सायण के ऋग्वेदभाष्य में उद्धृत है। यह सब प्रामाणिक नहीं है, किन्तु कथाकारों का लीलाविलास है ॥
इस भाष्य को एडिट करें