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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 347
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣡सा꣢वि꣣ सो꣡म꣢ इन्द्र ते꣣ श꣡वि꣢ष्ठ धृष्ण꣣वा꣡ ग꣢हि । आ꣡ त्वा꣢ पृणक्त्विन्द्रि꣣य꣢꣫ꣳ रजः꣣ सू꣢र्यो꣣ न꣢ र꣣श्मि꣡भिः꣢ ॥३४७॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡सा꣢꣯वि । सो꣡मः꣢꣯ । इ꣣न्द्र । ते । श꣡वि꣢꣯ष्ठ । धृ꣣ष्णो । आ꣢ । ग꣣हि । आ꣢ । त्वा꣣ । पृणक्तु । इन्द्रिय꣢म् । र꣡जः꣢꣯ । सू꣡र्यः꣢꣯ । न । र꣣श्मि꣡भिः꣢ ॥३४७॥
स्वर रहित मन्त्र
असावि सोम इन्द्र ते शविष्ठ धृष्णवा गहि । आ त्वा पृणक्त्विन्द्रियꣳ रजः सूर्यो न रश्मिभिः ॥३४७॥
स्वर रहित पद पाठ
असावि । सोमः । इन्द्र । ते । शविष्ठ । धृष्णो । आ । गहि । आ । त्वा । पृणक्तु । इन्द्रियम् । रजः । सूर्यः । न । रश्मिभिः ॥३४७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 347
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 12;
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विषय - अगले मन्त्र में इन्द्र को सोमपान के लिए पुकारा गया है।
पदार्थ -
प्रथम—जीवात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) मेरे अन्तरात्मन् ! (ते) तेरे लिए (सोमः) ज्ञान, उत्साह आदि का रस (असावि) मेरे द्वारा अभिषुत किया गया है। हे (शविष्ठ) बलिष्ठ, (धृष्णो) कामादि शत्रुओं को परास्त करनेवाले ! (आ गहि) तू रसपान के लिए आ, अर्थात् अभिमुख हो। (इन्द्रियम्) ज्ञान की साधन-भूत मेरी मन, चक्षु आदि इन्द्रिय (रश्मिभिः) ज्ञान-प्रकाशों से (त्वा) तुझे (आ पृणक्तु) भरपूर करें, (सूर्यः) सूर्य (न) जैसे (रश्मिभिः) अपनी किरणों से (रजः) पृथिवी, अन्तरिक्ष आदि लोक को भरपूर करता है ॥ अथवा, सोम से योगदर्शन १।४७ में प्रोक्त अध्यात्मप्रसाद अभिप्रेत है। इन्द्रिय से अभीष्ट है अध्यात्मप्रसाद में उत्पन्न, योग० १।४८ में प्रोक्त ऋतम्भरा प्रज्ञा। वह प्रज्ञा तुझ आत्मा को रश्मियों अर्थात् निर्बीजसमाधि के प्रकाशों से पूर्ण करे, यह आशय ग्रहण करना चाहिए ॥ द्वितीय—सेनाध्यक्ष आदि वीर मनुष्य के पक्ष में। हे (इन्द्र) वीर नरपुंगव सेनाध्यक्ष ! (ते) तेरे लिए अर्थात् तेरे पीने के लिए, हम प्रजाजनों ने (सोमः) सोम आदि ओषधियों का रस (असावि) निचोड़ा है। उसके पानार्थ, हे (शविष्ठ) बलिष्ठ, (धृष्णो) शत्रुधर्षक वीर ! तू (आ गहि) आ। (इन्द्रियम्) मनरूप आन्तरिक इन्द्रिय (त्वा) तुझे (रश्मिभिः) उत्साह की किरणों से (पृणक्तु) भर देवे, जैसे सूर्य अपनी किरणों से भूमण्डल आदि को भर देता है, इत्यादि शेष पूर्ववत् अर्थ जानना चाहिए ॥६॥ इस मन्त्र में श्लेष और उपमा अलङ्कार हैं ॥६॥
भावार्थ - सबको चाहिए कि अपने आत्मा को उद्बोधन देकर ज्ञान, कर्म, योगसिद्धि आदि का संचय करें। इसी प्रकार राष्ट्र के कर्णधार सेनापति आदि वीरता का संचय करके राष्ट्र की रक्षा करें ॥६॥
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