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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 348
ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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ए꣡न्द्र꣢ याहि꣣ ह꣡रि꣢भि꣣रु꣢प꣣ क꣡ण्व꣢स्य सुष्टु꣣ति꣢म् । दि꣣वो꣢ अ꣣मु꣢ष्य꣣ शा꣡स꣢तो꣣ दि꣡वं꣢ य꣣य꣡ दि꣢वावसो ॥३४८॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । इ꣣न्द्र । याहि । ह꣡रि꣢꣯भिः । उ꣡प꣢꣯ । क꣡ण्व꣢꣯स्य । सु꣣ष्टुति꣢म् । सु꣣ । स्तुति꣢म् । दि꣣वः꣢ । अ꣣मु꣡ष्य꣢ । शा꣡स꣢꣯तः । दि꣡व꣢꣯म् । य꣣य꣢ । दि꣣वावसो । दिवा । वसो ॥३४८॥


स्वर रहित मन्त्र

एन्द्र याहि हरिभिरुप कण्वस्य सुष्टुतिम् । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥३४८॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । इन्द्र । याहि । हरिभिः । उप । कण्वस्य । सुष्टुतिम् । सु । स्तुतिम् । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो । दिवा । वसो ॥३४८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 348
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 12;
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पदार्थ -
हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! आप (हरिभिः) अपनी अध्यात्म-प्रकाश की किरणों के साथ (कण्वस्य) मुझ मेधावी की (सुस्तुतिम्) शुभ स्तुति को (उप आयाहि) समीपता से प्राप्त कीजिए। आगे स्तोता अपने आत्मा को कहता है—हे (दिवावसो) दीप्तिधन के इच्छुक मेरे अन्तरात्मन् ! तू (शासतः) शासक, (अमुष्य) चर्म-चक्षुओं से न दीखनेवाले उस (दिवः) दीप्तिमान् परमात्मा के (दिवम्) प्रकाशक तेज को (यय) प्राप्त कर ॥७॥ इस मन्त्र में ‘दिवो, दिवं, दिवा’ में वृत्त्यनुप्रास अलङ्कार है ॥७॥

भावार्थ - यदि हमारी स्तुति हृदय से निकली है, तो परमेश्वर उसे सुनता ही है। हमें भी उसका सान्निध्य प्राप्त कर उसके तेज से तेजस्वी बनना चाहिए ॥७॥

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