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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 359
ऋषिः - जेता माधुच्छन्दसः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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पु꣣रां꣢ भि꣣न्दु꣡र्युवा꣢꣯ क꣣वि꣡रमि꣢꣯तौजा अजायत । इ꣢न्द्रो꣣ वि꣡श्व꣢स्य꣣ क꣡र्म꣢णो ध꣣र्त्ता꣢ व꣣ज्री꣡ पु꣢रुष्टु꣣तः꣡ ॥३५९॥

स्वर सहित पद पाठ

पु꣣रा꣢म् । भि꣣न्दुः꣢ । यु꣡वा꣢꣯ । क꣣विः꣢ । अ꣡मि꣢꣯तौजाः । अ꣡मि꣢꣯त । ओ꣣जाः । अजायत । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । वि꣡श्व꣢꣯स्य । क꣡र्म꣢꣯णः । ध꣣र्त्ता꣢ । व꣣ज्री꣢ । पु꣣रुष्टुतः꣢ । पु꣣रु । स्तुतः꣢ ॥३५९॥


स्वर रहित मन्त्र

पुरां भिन्दुर्युवा कविरमितौजा अजायत । इन्द्रो विश्वस्य कर्मणो धर्त्ता वज्री पुरुष्टुतः ॥३५९॥


स्वर रहित पद पाठ

पुराम् । भिन्दुः । युवा । कविः । अमितौजाः । अमित । ओजाः । अजायत । इन्द्रः । विश्वस्य । कर्मणः । धर्त्ता । वज्री । पुरुष्टुतः । पुरु । स्तुतः ॥३५९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 359
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1;
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पदार्थ -
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (पुराम्) मन में दृढ़ हुई तमोगुण की नगरियों का (भिन्दुः) विदारक, (युवा) नित्य युवा रहनेवाला अर्थात् अजर-अमर, (कविः) वेदकाव्य का कवि, अथवा क्रान्तदर्शी, (अमितौजाः) अपरिमित तेजवाला, (वज्री) न्याय-दण्ड को धारण करनेवाला, (पुरुष्टुतः) बहुस्तुत (इन्द्रः) ब्रह्माण्ड का सम्राट् परमात्मा (विश्वस्य कर्मणः) सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि के भ्रमण, ऋतु-निर्माण, नदी-प्रवाह, वर्षा, पाप-पुण्य का फल प्रदान आदि सब कर्मों का (धर्ता) नियामक (अजायत) बना हुआ है ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। (पुराम्) शत्रु की नगरियों या किलेबन्दियों का (भिन्दुः) तोड़नेवाला, (युवा) तरुण, (कविः) राजनीतिशास्त्र का पण्डित व दूरदर्शी, (अमितौजाः) अपरिमित पराक्रमवाला, (वज्री) विविध शस्त्रास्त्रों का संग्रहकर्ता और उनके प्रयोग में कुशल, (पुरुष्टुतः) अनेकों प्रजाजनों से प्रशंसित (इन्द्रः) शूरवीर राजा वा सेनापति (विश्वस्य कर्मणः) सब राजकाज वा सेनासंगठन-कार्य का (धर्ता) भार उठानेवाला (अजायत) होता है ॥ तृतीय—सूर्य के पक्ष में। (पुराम्) अन्धकार, बादल, बर्फ आदि नगरियों का (भिन्दुः) विदारणकर्ता, (युवा) पदार्थों को मिलाने और अलग करनेवाला, (कविः) अपनी धुरी पर घूमनेवाला, अथवा पृथिवी, मङ्गल, बुध, चन्द्रमा आदि ग्रहोपग्रहों को अपने चारों ओर घुमानेवाला, (अमितौजाः) अपरिमित बल और प्रकाश वाला, (वज्री) किरणरूप वज्रवाला, (पुरुष्टुतः) बहुत-से खगोलज्योतिष को जाननेवाले विद्वान् वैज्ञानिकों द्वारा वर्णन किया गया (इन्द्रः) सूर्य (विश्वस्य कर्मणः) सौरमण्डल में दिखायी देनेवाले सब प्राकृतिक कर्मों का (धर्ता) धारक (अजायत) बना हुआ है ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥८॥

भावार्थ - जैसे राष्ट्र का राजा सब राज्यकार्य का और सेनापति सेना के संगठनकार्य का नेता होता है, अथवा जैसे सूर्य सौरमण्डल का धारणकर्ता है, वैसे ही विविध लोक-लोकान्तरों के समष्टिरूप इस महान् ब्रह्माण्ड में विद्यमान सम्पूर्ण व्यवस्था का करनेवाला राजाधिराज परमेश्वर है, यह सबको जानना चाहिए ॥८॥ इस दशति में इन्द्र की महिमा का वर्णन होने, उसके प्रति आत्मसमर्पण आदि की प्रेरणा होने तथा इन्द्र नाम से राजा, सेनापति, आचार्य आदि का भी वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ चतुर्थ प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की द्वितीय दशति समाप्त ॥ चतुर्थ अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥

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