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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 359
ऋषिः - जेता माधुच्छन्दसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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पु꣣रां꣢ भि꣣न्दु꣡र्युवा꣢꣯ क꣣वि꣡रमि꣢꣯तौजा अजायत । इ꣢न्द्रो꣣ वि꣡श्व꣢स्य꣣ क꣡र्म꣢णो ध꣣र्त्ता꣢ व꣣ज्री꣡ पु꣢रुष्टु꣣तः꣡ ॥३५९॥
स्वर सहित पद पाठपु꣣रा꣢म् । भि꣣न्दुः꣢ । यु꣡वा꣢꣯ । क꣣विः꣢ । अ꣡मि꣢꣯तौजाः । अ꣡मि꣢꣯त । ओ꣣जाः । अजायत । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । वि꣡श्व꣢꣯स्य । क꣡र्म꣢꣯णः । ध꣣र्त्ता꣢ । व꣣ज्री꣢ । पु꣣रुष्टुतः꣢ । पु꣣रु । स्तुतः꣢ ॥३५९॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरां भिन्दुर्युवा कविरमितौजा अजायत । इन्द्रो विश्वस्य कर्मणो धर्त्ता वज्री पुरुष्टुतः ॥३५९॥
स्वर रहित पद पाठ
पुराम् । भिन्दुः । युवा । कविः । अमितौजाः । अमित । ओजाः । अजायत । इन्द्रः । विश्वस्य । कर्मणः । धर्त्ता । वज्री । पुरुष्टुतः । पुरु । स्तुतः ॥३५९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 359
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमेश्वर, सूर्य, राजा आदि की महिमा वर्णित है।
पदार्थ
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (पुराम्) मन में दृढ़ हुई तमोगुण की नगरियों का (भिन्दुः) विदारक, (युवा) नित्य युवा रहनेवाला अर्थात् अजर-अमर, (कविः) वेदकाव्य का कवि, अथवा क्रान्तदर्शी, (अमितौजाः) अपरिमित तेजवाला, (वज्री) न्याय-दण्ड को धारण करनेवाला, (पुरुष्टुतः) बहुस्तुत (इन्द्रः) ब्रह्माण्ड का सम्राट् परमात्मा (विश्वस्य कर्मणः) सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि के भ्रमण, ऋतु-निर्माण, नदी-प्रवाह, वर्षा, पाप-पुण्य का फल प्रदान आदि सब कर्मों का (धर्ता) नियामक (अजायत) बना हुआ है ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। (पुराम्) शत्रु की नगरियों या किलेबन्दियों का (भिन्दुः) तोड़नेवाला, (युवा) तरुण, (कविः) राजनीतिशास्त्र का पण्डित व दूरदर्शी, (अमितौजाः) अपरिमित पराक्रमवाला, (वज्री) विविध शस्त्रास्त्रों का संग्रहकर्ता और उनके प्रयोग में कुशल, (पुरुष्टुतः) अनेकों प्रजाजनों से प्रशंसित (इन्द्रः) शूरवीर राजा वा सेनापति (विश्वस्य कर्मणः) सब राजकाज वा सेनासंगठन-कार्य का (धर्ता) भार उठानेवाला (अजायत) होता है ॥ तृतीय—सूर्य के पक्ष में। (पुराम्) अन्धकार, बादल, बर्फ आदि नगरियों का (भिन्दुः) विदारणकर्ता, (युवा) पदार्थों को मिलाने और अलग करनेवाला, (कविः) अपनी धुरी पर घूमनेवाला, अथवा पृथिवी, मङ्गल, बुध, चन्द्रमा आदि ग्रहोपग्रहों को अपने चारों ओर घुमानेवाला, (अमितौजाः) अपरिमित बल और प्रकाश वाला, (वज्री) किरणरूप वज्रवाला, (पुरुष्टुतः) बहुत-से खगोलज्योतिष को जाननेवाले विद्वान् वैज्ञानिकों द्वारा वर्णन किया गया (इन्द्रः) सूर्य (विश्वस्य कर्मणः) सौरमण्डल में दिखायी देनेवाले सब प्राकृतिक कर्मों का (धर्ता) धारक (अजायत) बना हुआ है ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥८॥
भावार्थ
जैसे राष्ट्र का राजा सब राज्यकार्य का और सेनापति सेना के संगठनकार्य का नेता होता है, अथवा जैसे सूर्य सौरमण्डल का धारणकर्ता है, वैसे ही विविध लोक-लोकान्तरों के समष्टिरूप इस महान् ब्रह्माण्ड में विद्यमान सम्पूर्ण व्यवस्था का करनेवाला राजाधिराज परमेश्वर है, यह सबको जानना चाहिए ॥८॥ इस दशति में इन्द्र की महिमा का वर्णन होने, उसके प्रति आत्मसमर्पण आदि की प्रेरणा होने तथा इन्द्र नाम से राजा, सेनापति, आचार्य आदि का भी वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ चतुर्थ प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की द्वितीय दशति समाप्त ॥ चतुर्थ अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(इन्द्र) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (पुरां भिन्दुः) उपासकों के देहपुरों—देह बन्धनों को ‘मुक्ति देकर’ भेदन करने वाला (युवा) सदा समय अजर (कविः) सर्वज्ञ उपदेष्टा (अमितौजाः) अनन्त बल वाला (विश्वस्य कर्मणः-धर्त्ता) जगद्रचन कर्म का धारक (वज्री) शासनवान् शासन “वज्रः शासः” [श॰ ३.१.८.५] (पुरुष्टुतः) बहुत प्रकार से स्तुति करने योग्य (अजायत) उपासक के हृदय में साक्षात् प्रसिद्ध होता है।
भावार्थ
परमात्मा उपासकों के देहबन्धन का काटने वाला मुक्ति देने वाला, उनका सर्वज्ञ उपदेशक अनन्त आत्मबल वाला संसार का रचनादि कर्म का अधिष्ठाता जीवों का शासक कर्मफल विधाता बहुत प्रकार से स्तुति करने योग्य उनके अन्दर साक्षात् होता है॥८॥
विशेष
ऋषिः—जेता माधुच्छन्दसः (मीठी इच्छा वाले या मधुपरायण का पुत्र या शिष्य जितेन्द्रिय या वासना जीत चुका जन)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥<br>
विषय
असुर पुरियों का विध्वंस
पदार्थ
जीव तीन दीवारोंवाले एक किले के अन्दर कैद है। इन्हें ही 'स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर' कहा जाता है। स्थूलशरीर तो समय पाकर स्वयं ही समाप्त हो जाता है और कारण - - शरीर प्रकृतिरूप होने से इतना व्यापक है कि वह बन्धनरूप प्रतीत नहीं होता। बीच का सूक्ष्म शरीर जो कि 'इन्द्रियों, मन और बुद्धि' से बना हुआ है यही जीव के बन्ध का सबसे बड़ा कारण है। इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि ही असुरों के आक्रमण से आक्रान्त होकर असुरपुरियाँ बन जाती हैं और जीव का बन्धनागार हो जाती हैं। जीव का कर्त्तव्य है कि वह इन काम-क्रोध-लोभ को जीते और इस प्रकार इन असुरपुरियों का ध्वंस कर दे । जिष्णु तो इसने बनना ही है, इन पुरियों का विदारण करके ही तो ऐसा बनेगा मन्त्र में कहते हैं (पुरां भिन्दुः) = इन असुरनगरियों का भेदन करनेवाला ही (इन्द्रः) = इन्द्र है । इन्द्र के द्वारा ही सब असुरों के विध्वंस का वर्णन है। इन्द्र देव सम्राट् हैं - असुरों का संहार करनेवाला है।
इस असुर-संहार के लिए ही इसे (युवा) = [यु= मिश्रण, अमिश्रण] बुराई को अपने से दूर करना है और अच्छाई को अपने से जोड़ना है। ('सं मा भद्रेण पंक्तम् विमापाप्माना पंक्तम्) । इसके लिए यह तभी सम्भव होगा यदि यह (विश्वस्य कर्मणो धर्ता) = सबके हित के कर्मों का धारण करनेवाला बनेगा। जितना - जितना स्वार्थ कम होकर परार्थ का अंश इसमें बढ़ता जाएगा उतना - उतना भद्र से युक्त और अभद्र से दूर होकर युवा बनता जाएगा।
भद्र से मेल व अभद्र से पार्थक्य साधन के लिए इसे (कवि:) = क्रान्तदर्शी बनना है। वस्तुओं के तात्त्विक विवेचन से ही यह दुरितों से दूर और सुवितों के समीप होगा। धर्माधर्म का विवेक ही इसके अन्दर अधर्म के प्रति वैराग्य पैदा कर सकता है। कवि बनकर यह (वज्री) = निरन्तर क्रियाशील भी बनता है। कवि संसार के इस तत्त्व को समझ लेता है कि क्रियाशीलता ही संसार है। संसार के इस तत्त्व को समझनेवाला यह कवि (वज्री) = गतिशील क्यों न होगा?
इस प्रकार तत्वज्ञान के कारण भोगमार्ग से सदा दूर रहने के कारण यह (अमितौजा:) = अनन्त शक्तिवाला (अजायत) = बनता है [अमित ओजस्] और इस अनन्त शक्ति से (पुरुष्टुतः) = सदा स्तुत होता है। अथवा इस अनन्त शक्ति के लिए यह सदा [पुरुस्तुतं यस्य] प्रभु की स्तुति में लगा रहता है। प्रभु से दूर होना ही तो इसे प्रकृति में फंसाकर निर्बल कर देता है। इस प्रकार सदा प्रभु के साथ रहनेवाला यह विजयी तो बनता ही है, अतः ‘जेता' कहलाता है और सदा उत्तम इच्छाओंवाला बने रहने के कारण यह ‘मधुच्छन्दस्' होता है।
भावार्थ
हम प्रयत्न करें कि हम असुर- पुरियों का विध्वंस करके मुक्त हो सकें।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( पुरां भिन्दु: ) = समस्त देहों को कारण में लय कराकर उनका भेदन कराने हारा, सबको मुक्ति देनेहारा, ( युवा ) = सबका संगी ( कविः ) = सबके हृदयों के भीतर का भी जानने हारा, कान्तदर्शी, मेधावी ( अमितौजा: ) = अनन्तशक्ति और बल से युक्त ( विश्वस्य कर्मणः धर्ता ) = समस्त ब्रह्माण्ड के कार्य को धारण करने हारा ( वज्री ) = सबका संहारक, सर्वशक्तिमान् ( पुरु-स्तुतः ) = सबसे स्तुति करने योग्य, एकमात्र उपास्य देव ( इन्द्रः ) = वह ऐश्वर्यशील परमेश्वर ही है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - जेता माधुच्छन्दसः।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - अनुष्टुभ् ।
स्वरः - गान्धारः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमेश्वरनृपसूर्यादीनां महिमानं वर्णयति।
पदार्थः
प्रथमः—परमात्मपरः। (पुराम्) मनसि दृढं बद्धानाम् तमःपुरीणाम् (भिन्दुः) भेत्ता। भिदिर् विदारणे धातोः ‘पॄभिदिव्यधिगृधिधृषिहृषिभ्यः। उ० १।२३’ इति कुः, बाहुलकान्नुमागमः। (युवा) नित्यतरुणः, अजरामरः, (कविः) वेदरूपस्य काव्यस्य कर्ता, क्रान्तदर्शी वा, (अमितौजाः) अपरिमिततेजाः, (वज्री) न्यायदण्डधरः, (पुरुष्टुतः) बहुस्तुतः (इन्द्रः) ब्रह्माण्डस्य सम्राट् परमात्मा (विश्वस्य कर्मणः) सूर्यचन्द्रपृथिव्यादिभ्रमण-ऋतुनिर्माण-सरित्प्रवाह-वृष्टि-पापपुण्यफलप्रदानादिकस्य सकलस्यापि व्यापारस्य (धर्ता) धारकः, नियामकः (अजायत) जातोऽस्ति ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। (पुराम्) शत्रुनगरीणाम् शत्रुदुर्गाणां वा (भिन्दुः) भेत्ता, (युवा) यौवनसम्पन्नः, (कविः) राजनीतिशास्त्रस्य पण्डितः, क्रान्तद्रष्टा वा। कविः इति मेधाविनाम। निघं० ३।१५। कविः क्रान्तदर्शनो भवति कवतेर्वा। निरु० १२।१३। (अमितौजाः) अपरिमेयपराक्रमः, (वज्री) विविधानां शस्त्रास्त्राणां संग्रहीता तच्चालनकुशलश्च, (पुरुष्टुतः) बहुभिः प्रजाजनैः कीर्तितः (इन्द्रः) शूरवीरो राजा सेनापतिर्वा (विश्वस्य कर्मणः) सकलस्य राजकार्यस्य सैन्यसंघटनकार्यस्य वा (धर्ता) धारकः (अजायत) जायते ॥ अथ तृतीयः—सूर्यपरः। (पुराम्) अन्धकार-मेघ-हिमादिपुरीणाम् (भिन्दुः) भेदकः, (युवा) पदार्थानां मिश्रणामिश्रणकर्ता। यु मिश्रणामिश्रणयोरिति धातोः ‘कनिन् यु-वृषि-तक्षि-राजि-धन्वि-द्यु-प्रतिदिवः। उ० १।१५६’ इति सूत्रेण कनिन् प्रत्ययः। (कविः) यः कवते गच्छति परिक्रामति स्वधुरि, यद्वा कवयति गमयति परिक्रमयति स्वं परितः पृथिवीमङ्गलबुधचन्द्रादिग्रहोपग्रहान् सः। असौ वादित्यः कविः। श० ६।७।२।४। (अमितौजाः) अपरिमितबलः अपरिमितप्रकाशो वा, (वज्री) किरणरूपवज्रवान्, (पुरुष्टुतः) बहुभिः खगोलज्योतिर्विद्भिर्वैज्ञानिकैर्वर्णितः (इन्द्रः) सूर्यः। अथ यः स इद्रोऽसौ स आदित्यः। श० ८।५।३।२। इति प्रामाण्यात्। (विश्वस्य कर्मणः) सौरलोके दृश्यमानस्य सर्वस्य प्राकृतिकस्य व्यापारस्य (धर्ता) धारकः (अजायत) सञ्जातोऽस्ति ॥८॥२ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥८॥
भावार्थः
यथा राष्ट्रस्य सम्राट् सर्वस्य राज्यकार्यस्य सेनापतिर्वा सैन्यसंघटनकार्यस्य नेता भवति, यथा वा सूर्यः सौरमण्डलस्य धर्ता विद्यते, तथैव विविधलोकलोकान्तरसमष्टिरूपे महति ब्रह्माण्डे विद्यमानायाः सम्पूर्णव्यवस्थायाः कर्ता राजाधिराजः परमेश्वरोऽस्तीति सर्वैर्मन्तव्यम् ॥८॥ अत्रेन्द्रस्य महिमवर्णनात्, तं प्रत्यात्मसमर्पणादिप्रेरणाद्, इन्द्रनाम्ना नृपतिसेनापत्याचार्यादीनां चापि कर्तव्यवर्णनाद् एतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्। इति चतुर्थे प्रपाठके द्वितीयार्द्धे द्वितीया दशतिः ॥ इति चतुर्थेऽध्याये प्रथमः खण्डः ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।११।४, साम० १२५०। २. एष मन्त्रो दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये सेनापतिविषये सूर्यविषये च व्याख्यातः।
इंग्लिश (2)
Meaning
God is the Bestower of Salvation by dissolving our bodies into Causal Matter, Ever Young, the Wise, Unmeasured in strength, the Sustainer of the working of the whole universe, the Dissolver, and Extolled by many.
Meaning
Breaker of the enemy forts, youthful, creative and imaginative, hero of boundless strength, sustainer of the acts of the world and disposer, wielder of the thunderbolt, universally acclaimed and celebrated is risen into prominence. (Rg, 1-11-4)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા (पुरां भिन्दुः) ઉપાસકોના દેહપુરો - દેહ બંધનોને મુક્ત કરીને ભેદન કરનાર , (युवा) સર્વદા અજર , (कविः) સર્વજ્ઞ ઉપદ્રષ્ટા , (अमितौजाः) અનંત બળવાન , (विश्वस्य कर्मणः धर्त्ता) જગતની રચના અને ધારણ કરનાર , (वज्री) શાસનવાન ,(पुरुष्टुतः) અનેક રીતે સ્તુતિ કરવા યોગ્ય , (अजायत) ઉપાસકના હૃદયમાં સાક્ષાત્ પ્રકટ થાય છે. (૮)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મા ઉપાસકોના દેહ બંધનને કાપનાર, મુક્તિ આપનાર, તેના સર્વજ્ઞ ઉપદેશક, અનંત આત્મબળયુક્ત, સંસારની રચના વગેરે કર્મના અધિષ્ઠાતા, જીવોના શાસક-કર્મફળ વિધાતા તથા અનેક પ્રકારથી સ્તુતિ કરવા યોગ્ય તેના અંદર હૃદયમાં સાક્ષાત્ થાય છે. (૮)
उर्दू (1)
Mazmoon
اِنصاف کا بجر لئے اوصافِ حمیدہ سے پُر ہے!
Lafzi Maana
اِندر پرمیشور (اجایت) ہردیہ میں پرگٹ ہوا ہے، وہ پرانیوں کے کرموں کے مطابق (پُرام بھندوُ) شریروں کو توڑتا، بدلتا اور پھر بناتا ہے، وہ سدا (یُوا کوی امِت آؤ جا) جوانِ وید کاویہ کا کوی ہے اور اپاربل شکتی والا ہے، تتھا (وِشو سیہ کرمنا دھرتا) سب کے کرم کریاؤں کا دھارک ہے، (وجری پُروُشٹتہ) انصاف کا بجر لئے ہوئے اوصافِ حمیدہ سے پُر ہے۔
Tashree
بچہ و بوڑھا جواں ہو کے فنا پھر آ گیا، توڑ بھن اور پھر بنا یہ کھیل اُس کا سدا رہا۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसा राष्ट्राचा राजा सर्व राज्यकार्याचा व सेनापती सेनेच्या संगठन कार्याचा नेता असतो किंवा जसा सूर्य सौरमंडलाचा धारणकर्ता आहे, तसेच विविध लोकलोकांतराचे समष्टिरूप या महान ब्रह्मांडात विद्यमान संपूर्ण व्यवस्था करणारा राजाधिराज परमेश्वर आहे, हे सर्वांनी जाणले पाहिजे ॥८॥ या दशतिमध्ये इंद्राच्या महिमेचे वर्णन असल्यामुळे, त्याला आत्मसमर्पण इत्यादीची प्रेरणा असल्यामुळे व इंद्र नावाने राजा, सेनापती, आचार्य इत्यादींचे वर्णन असल्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे
विषय
इंद्र नावाच्या परमेश्वराचा, राजाचा व सूर्यादीचा महिमा -
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) (परमात्मपर) (पुराम्) मनात घर करून राहिलेल्या तमोगुणाच्या अनेक --- (भिन्दुः) ध्वस्त करणारा (युवा) नित्य युवा अर्थात अजर, अमर, तसेच (कविः) वेदकाव्याचा कर्ता वा क्रान्तदर्शी तो (इंद्रः) इंद्र (अमितौजाः) अपरिमित तेजस्वी आहे. तो (वज्री) न्यायी व न्यायदंड धारण करणारा तसेच (पुरुष्टुतः) बुहस्तुत (इंद्र) ब्रह्मांडाचा सम्राट असून (विश्वस्य कर्मणः) सूर्य, चंद्र, पृथ्वी आदींचे परिभ्रमण, ऋतु निर्माण, नदी-प्रवाह, वृष्टी, पाप-पुण्याचे फल देणे आदी सर्व कर्मांचा (धर्ता) नियामक (अजायत) झालेला आहे.।। द्वितीय अर्थ - (राष्ट्रपर) - (पुराम्) शत्रूच्या नगीर आणि त्याचे दुर्गा यांना (भिन्दुः) भग्न करणारा (युवा) तरुण आणि (कविः) राजनीतिशास्त्रवेत्ता व दूरद्रष्टा (अभितौजाः) अपरिमित पराक्रम करणारा तो (इंद्रः) आमचा शूरवीर राजा वा सेनापती (वज्री) विविध सस्त्रांच्या संग्रहकर्ता व अस्त्र शस्त्र प्रयोगनिपुण आहे, ती (पुरुष्टुतः) अनेक प्रजाजनांद्वारे प्रशंसित आहे आणि (विश्वस्य कर्मणः) सर्व राज्य कारभार, सैन्य संगठन या कार्यांचा (धर्ता) जबाबदारी उचलणारा (अजायत) असतो. (वा असा असायला पाहिजे.)।। तृतीय अर्थ - (सूर्यपर अर्थ) (पुराम्) अंधकार, ढग, बर्फ आदींच्या नगरींना (समूहाला) (भिन्दुः) भेद न करणारा (युवा) पदार्थांचे मिश्रण व विभक्तीकरण करणारा (कविः) आपल्या धुरीवर फिरणारा अथवा पृथ्वी, मंगळ, बुध, चंद्र आदी ग्रह-उपग्रहांना आपल्याभोवती परिभ्रमण करविणारा (अभितैजाः) अपरिमित शक्ती व प्रकाश धारण करणारा (इंद्रः) सूर्य (सर्वांचा धारक आहे) तो (वज्री) किरणरूप वज्र धारण करणारा व (पुरुष्टुतः) खगोल- ज्योतिष जामणाऱ्या विद्वानांनी व वैज्ञानिकांनी ज्याचे वर्णन केले आहे, असा असून (विश्वस्य कर्मणः) सौरमंडलात दिसणाऱ्या सर्व प्राकृतिक कर्मांचे (दिवस- रात्र होणे, उदय अस्त होए आदींचा) (धर्ता) धारक (अजायत) म्हणून विद्यमान आहे.।। ८।। चतुर्थ प्रपाठकातील द्वितीय अर्धाची दशती समाप्त. चतुर्थ अध्यायातील प्रथम खंड समाप्त.
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे.।। ८।।
विशेष
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे.।। ८।।
तमिल (1)
Word Meaning
இந்திரன் சம்பத்தோடு சனிக்கிறான். அவன் கோட்டைகளைத் தகர்ப்பவன், காளை, கவியாகும், பல மலை, சகல செயல்களை செய்பவன், போஷகன், வச்சிராயுதன், அதிகமாய் துதிக்கப்படுபவன்.
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