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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 358
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - दधिक्रा छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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    द꣣धिक्रा꣡व्णो꣢ अकारिषं जि꣣ष्णो꣡रश्व꣢꣯स्य वा꣣जि꣡नः꣢ । सु꣣रभि꣢ नो꣣ मु꣡खा꣢ कर꣣त्प्र꣢ न꣣ आ꣡यू꣢ꣳषि तारिषत् ॥३५८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द꣣धिक्रा꣡व्णः꣢ । द꣣धि । क्रा꣡व्णः꣢꣯ । अ꣣कारिषम् । जिष्णोः꣢ । अ꣡श्व꣢꣯स्य । वा꣣जि꣡नः꣢ । सु꣣रभि꣢ । सु꣣ । रभि꣢ । नः꣣ । मु꣡खा꣢꣯ । मु । खा꣣ । करत् । प्र꣢ । नः꣢ । आ꣡यूँ꣢꣯षि । ता꣣रिषत् ॥३५८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः । सुरभि नो मुखा करत्प्र न आयूꣳषि तारिषत् ॥३५८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दधिक्राव्णः । दधि । क्राव्णः । अकारिषम् । जिष्णोः । अश्वस्य । वाजिनः । सुरभि । सु । रभि । नः । मुखा । मु । खा । करत् । प्र । नः । आयूँषि । तारिषत् ॥३५८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 358
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र का ‘दधिक्रावा’ अग्निदेवता है। इस नाम से परमात्मा, यज्ञाग्नि और राजा की स्तुति की गयी है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। मैं (जिष्णोः) विजयशील तथा विजय प्रदान करनेवाले, (अश्वस्य) सब शुभ गुणों में व्याप्त, (वाजिनः) बल और विज्ञान से युक्त (दधिक्राव्णः) धारक पृथिवी, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि लोकों को अपनी-अपनी धुरी पर अथवा किसी पिण्ड के चारों ओर घुमानेवाले, अथवा स्तोत्र-धारकों, धर्म-धारकों वा सद्गुण-धारकों को कर्मयोगी बनानेवाले जगदीश्वर का (अकारिषम्) स्वागत करता हूँ। स्वागतवचन द्वारा सत्कृत वह जगदीश्वर (नः) हमारे (मुखा) मुखों को (सुरभि) सुगन्धित अर्थात् कटु-वचन, पर-निन्दा आदि से रहित मधुर सत्य-भाषण के सौरभ से सम्पन्न (करत्) करे, और (नः) हमारी (आयूंषि) आयुओं को (प्र तारिषत्) बढ़ाये ॥ द्वितीय—यज्ञाग्नि के पक्ष में। मैं (जिष्णोः) रोग आदि पर विजय पानेवाले, (अश्वस्य) फैलने के स्वभाववाले, (वाजिनः) हव्यान्नों से युक्त (दधिक्राव्णः) हवियों को धारण कर रूपान्तरित करके देशान्तर में पहुँचा देनेवाले आहवनीय अग्नि का (अकारिषम्) यज्ञ में उपयोग करता हूँ, अर्थात् उसमें हवियों का होम करता हूँ। आहुति दिया हुआ वह यज्ञाग्नि (नः) हमारे (मुखा) मुख को, अर्थात् मुखवर्ती नासिका-प्रदेश को (सुरभि) सुगन्धित (करत्) कर दे, और (नः आयूंषि प्रतारिषत्) हम अग्निहोत्रियों के आयु के वर्षों को बढ़ाये। अभिप्राय यह है कि नियम से अग्निहोत्र करते हुए हम चिरञ्जीवी हों ॥ अग्नि में होमे हुए सुगन्धित हव्य से सुगन्धित हुआ वायु जब श्वास-प्रश्वास-क्रिया द्वारा फेफड़ों के अन्दर जाता है, तब रक्त को शुद्ध कर, उसमें जीवनदायक तत्त्व समाविष्ट करके, उसकी मलिनता को हरकर बाहर निकाल देता है। वेद में कहा भी है—‘हे वायु, तू अपने साथ औषध अन्दर ला, जो मल है उसे बाहर निकाल। तू सब रोगों की दवा है, तू विद्वान् वैद्यों का दूत होकर विचरता है (ऋ० १०।१३७|३)’। एक अन्य मन्त्र में वैद्य कह रहा है—‘हे रोगी ! मैं हवि के द्वारा तुझे जीवन देने के लिए अज्ञात रोग से और राजयक्ष्मा से छुडा दूँगा। यदि तुझे गठिया रोग ने जकड़ लिया है, तो उससे भी वायु और अग्नि तुझे छुड़ा देंगे (ऋ० १०।१६१।१)’ ॥ तृतीय—राजा के पक्ष में। मैं (जिष्णोः) विजयशील (अश्वस्य) अश्व के समान राष्ट्र-रूप रथ को वहन करनेवाले, (वाजिनः) अन्नादि ऐश्वर्यों से युक्त, बलवान् और युद्ध करने में समर्थ, (दधिक्राव्णः) बहुत से लोगों तथा पदार्थों के धारक विमानादि यानों को चलवानेवाले राजा के (अकारिषम्) राजनियमों का पालन करता हूँ। (सः) वह राजा, सदाचारमार्ग में प्रवृत्त करके (नः) हम प्रजाजनों के (मुखा) मुखों को (सुरभि) यश के सौरभ से युक्त (करत्) करे, और (नः) हम प्रजाजनों की (आयूंषि) आयु के वर्षों को (प्रतारिषत्) बढ़ाये। भाव यह है कि आयुर्वेद के शिक्षण, चिकित्सा के सुप्रबन्ध, कृषि-व्यापार-पशुपालन के उत्कर्ष, हिंसा-उपद्रव आदि के निवारण, शत्रुओं के उच्छेद, इस प्रकार के सब उपायों द्वारा राष्ट्रवासियों को अकाल मृत्यु का ग्रास बनने से बचाये ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है, तृतीय-चतुर्थ पादों में अन्त्यानुप्रास भी है। दधिक्रावा, अश्व और वाजी इन सबके अश्ववाचक होने से पुनरुक्ति प्रतीत होती है, किन्तु यौगिक अर्थ करने से पुनरुक्ति का परिहार हो जाता है, अतः पुनरुक्तवदाभास अलङ्कार है ॥७॥

    भावार्थ

    परमात्मा की स्तुति, अग्निहोत्र और राजनियमों के पालन द्वारा हमें यशःसौरभ और दीर्घायुष्य प्राप्त करना चाहिए ॥७॥ महीधर ने इस मन्त्र पर यजुर्वेदभाष्य में कात्यायन श्रौतसूत्र की अश्वमेधविधि का अनुसरण करते हुए यह लिखा है कि घोड़े के पास सोयी हुई यजमान की प्रथम परिणीत पत्नी महिषी को वहाँ से उठाकर अध्वर्यु, ब्रह्मा, उद्गाता, होता और क्षत्ता नामक ऋत्विज् इस मन्त्र को पढ़ें। साथ ही ‘सुरभि नो मुखा करत्’ की व्याख्या में लिखा है कि अश्लील भाषण से दुर्गन्ध को प्राप्त हुए मुखों को यज्ञ सुगन्धित कर दे। यह सब प्रलापमात्र है। कौन बुद्धिमान् ऐसा होगा जो पहले तो अश्लील भाषण करके मुखों को दुर्गन्धयुक्त करे और फिर उसकी शुद्धि का उपाय खोजे? ‘कीचड़ लगाकर फिर उसे धोने की अपेक्षा कीचड़ को हाथ न लगाना ही अधिक अच्छा है’ इस नीति का अनुसरण क्यों न किया जाये?

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    पदार्थ

    (जिष्णोः) जयशील—(अश्वस्य) व्यापक—(वाजिनः) अमृत अन्न वाले (दधिक्राव्णः) जगत् को धारण किए हुए परमात्मा के “देवपवित्रं वै दधिक्राः” [ऐ॰ ६.३६] (अकारिषम्) स्तुति करूँ (नः) हमारे (मुखा) मुख में होने वाले या मुखस्वरूप नासिका जिह्वा आदि ज्ञानेन्द्रियों को (सुरभि) सुगन्ध वाले (करत्) करो (नः-आयूंषि) हमारी आयुओं को (प्रतारिषत्) बढ़ावें।

    भावार्थ

    पवित्रदेव परमात्मा जो जयशील अमृतयोग का निमित्त व्यापक है वह हमारी इन्द्रियों को सुवासित करने वाला और आयुओं को बढ़ाता है उसकी स्तुति किया करें॥७॥

    विशेष

    ऋषिः—वामदेवः (वननीय देव जिसका है ऐसा उपासक)॥ देवता—दधिक्रावा ‘इन्द्रसम्बद्धो दधिक्रावा’ (परमात्मा से सम्बन्ध रखने वाला ध्यान में आने वाला गुण देव)॥<br>

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    विषय

    मधुर भाषण व दीर्घ जीवन

    पदार्थ

    मैं (अकारिषम्) = स्तुति करता हूँ। किस की? उस प्रभु की जोकि १. (दधिक्राव्णः) = दधत् क्रामति–जो धारण करता हुआ चलता है अर्थात् जिसकी प्रत्येक क्रिया धारण करनेवाली है। इस रूप में प्रभु की स्तुति करते हुए मुझे भी संसार में धारणात्मक कार्य ही करने चाहिएँ। २. (जिष्णोः) = मैं उस प्रभु की स्तुति करता हूँ जो जिष्णु है, विनयशील है। ('अहमिन्द्रो न पराजिग्ये') = मैं इन्द्र हूँ, अतः कभी पराजित नहीं होता। मुझे भी प्रभु का स्मरण करते हुए सदा विजयशील बनना है, जब तक विजय न हो तब तक युद्ध में स्थिर रहना है | ३.(अश्वश्य) = [अशू व्याप्तौ] मैं उस प्रभु को याद करता हूँ जोकि सर्वव्यापक है। दस सर्वव्यापक को याद करके मैं भी अधिक से अधिक व्यापक बनने का प्रयत्न करता हूँ। मैं सबके साथ एकता का अनुभव करने की साधना करता हूँ। ('वसुधैव कुटुम्बकम्') को अपना सिद्धान्त बनाता हूँ। ४. वा(जिनः)=शक्तिशाली प्रभु की मैं उपासना करता हूँ। उपासना करता हुआ मैं भी शक्तिशाली बनता हूँ।

    अपने जीवन को ऐसा बनाकर हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि वे (न मुखाः) = हमारे मुखों को (सुरभि करत्) = सुगन्धित करें। हम सदा मधुर ही बोलें । यह सुभाषित रस तो ऐसा है कि इसके सामने सुधा भी भयभीत हो स्वर्ग को भाग गई, शर्करा पत्थर बन गई और द्राक्षा म्लानमुखी हो गई। मधुर भाषण के लिए ही प्रभु ने हमें भेजा है। मधुर भाषण ही संसार को मधुर बनाता है। इस मधुर भाषण से प्रभो ! (न:) = हमारे (आयुंषि) = जीवनों को (प्र तारिषत्) = बढ़ाइए । मधुर भाषण से दीर्घ जीवन प्राप्त होता है क्योंकि यह हमें शान्त रखता है।

    एवं मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह रचनात्मक कार्य ही करे, तोड़-फोड़ के नहीं। विजयशील हो, उदार हो, शक्ति का सम्पादन करे, मीठा बोले। इन सुन्दर गुणों को अपने में धारण करनेवाला यह 'वामदेव' है। यही प्रभु का सच्चा स्तोता है। इसकी सब इन्द्रियाँ प्रभु का गुणगान करने में लगी रहती हैं, अतः प्रशस्त बनी रहती हैं और इसे 'गौतम' बना देती हैं।

    भावार्थ

    हम भी दधिक्रावा बनें।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( जिष्णो: ) = सब पर विजय प्राप्त करने हारे ( वाजिन ) = बलवान् ( अश्वस्य ) = सर्वव्यापक, ( दधिकाव्णः ) = शरीर को धारण करके योनि से योनि में गति करने हारे आत्मा , अथवा ब्रह्माण्ड भर को स्वयं धारण करके चलाने हारे परमेश्वर का ( अकारिषं ) = मैं वर्णन करता हूं । वह ( नः ) = हमारे ( मुखा ) = रूपादि विषयों को भीतर लेने वाले मुख, इन्द्रियों को ( सुरभि ) = उत्तम रूप से कार्य करने हारे, बलवान् कार्य निपुण, ( करत्  ) = करे और ( नः आयूंषि ) = हमारे जीवनों को ( प्र तारिषत् ) = तार दे, कृतार्थ करे, बढ़ावे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - वामदेव:।

    देवता - दधिक्रावा ।

    छन्दः - अनुष्टुभ् ।

    स्वरः - गान्धारः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    दधिक्रावा अग्निर्देवता। तन्नाम्ना परमात्मानं, यज्ञाग्निं, राजानं च स्तौति।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। अहम् (जिष्णोः) जयशीलस्य विजयप्रदानशीलस्य च, (अश्वस्य) सकलशुभगुणव्याप्तस्य, (वाजिनः) बलविज्ञानवतः (दधिक्राव्णः) यो दधीन् धारकान् पृथिवीचन्द्रसूर्यनक्षत्रादिलोकान् स्वधुरि किञ्चित् पिण्डं परितो वा क्रमयति परिक्रमयतीति तस्य। दधातीति दधिः, दधातेः ‘आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। अ० ३।२।१७।’ इति किः प्रत्ययः लिड्वच्च। दधिपूर्वात् क्रमु पादविक्षेपे धातोः ‘अन्येभ्योऽपि दृश्यते। अ० ३।२।७५’ इति वनिप् प्रत्ययः। यद्वा दधीन् स्तोत्रधारकान् धर्मधारकान् सद्गुणधारकान् वा क्रमयति कर्मयोगिनः करोतीति तस्य जगदीश्वरस्य (अकारिषम्) स्वागतं करोमि। अत्र करोतेर्लडर्थे लुङ्। स्वागतवचनेन सत्कृतः स दधिक्रावा जगदीश्वरः (नः) अस्माकं (मुखा) मुखानि (सुरभि) सुरभीणि, कटुवचनपरनिन्दादिरहितमधुरसत्यभाषणसौरभसम्पन्नानि। मुखा, सुरभि इत्युभयत्र ‘शेश्छन्दसि बहुलम्।’ अ० ६।१।७० इति शिलोपः। (करत्) कुर्यात्, (नः) अस्माकम् (आयूंषि) वयोवर्षाणि च (प्र तारिषत्) प्रवर्द्धयेत्। (प्र पूर्वस्तरतिर्वर्द्धनार्थः। ‘करत्’ इति करोतेः, ‘तारिषत्’ इति च तॄ प्लवनसंतरणयोः इत्येतस्य लेटि तिपि रूपम्, द्वितीये ‘सिब्बहुलं लेटि। अ० ३।१।२४’ इति सिबागमः, तस्य च णिद्वत्त्वाद् वृद्धिः। उभयत्र ‘इतश्च लोपः परमैपदेषु। अ० ३।४।९७’ इति तिप इकारलोपः ॥ अथ द्वितीयः—यज्ञाग्निपरः। अहम् (जिष्णोः) रोगादिजयशीलस्य, (अश्वस्य) व्यापनस्वभावस्य, (वाजिनः) हव्यान्नवतः (दधिक्राव्णः२) दधिः हव्यानि धृतवान् सन् तानि भस्मीकृत्य रूपान्तरं नीत्वा क्रमयति वायुमाध्यमेन देशान्तरं प्रापयतीति तस्य आहवनीयस्याग्नेः (अकारिषम्) यज्ञे उपयोगं करोमि, तस्मिन् हव्यानि जुहोमीत्यर्थः। हुतः स यज्ञाग्निः (नः) अस्माकम् (मुखा) मुखम्, मुखवर्तिनासिकाप्रदेशम्। अत्र ‘सुपां सुलुक्। अ० ७।१।३९’ इति द्वितीयैकवचनस्य आकारादेशः। (सुरभि) सौरभयुक्तम् (करत्) कुर्यात्, (नः आयूंषि प्रतारिषत्) अग्निहोतॄणामस्माकम् आयुर्वर्षाणि च प्रवर्द्धयेत्, नियमेनाग्नौ होमं कुर्वन्तो वयं चिरं जीवेमेत्यर्थः ॥ अग्नौ हुतेन सुगन्धिना हव्येन सुरभिगन्धिर्वायुर्यदा श्वासप्रश्वासक्रियया फुप्फुसाभ्यन्तरं गच्छति तदा रक्तं संशोध्य तत्र जीवनदायकं तत्त्वं समावेश्य तन्मालिन्यमपहृत्य बहिर्निस्सारयति। तेन स्वास्थ्य-लाभो दीर्घमायुश्च जायते। तथा च श्रुतिः—आ वा॑त वाहि भेष॒जं वि वा॑त वाहि॒ यद्रपः॑। त्वं हि वि॒श्वभे॑षजो दे॒वानां॑ दू॒त ईय॑से (ऋ० १०।१३७।३) इति। ‘मु॒ञ्चामि॑ त्वा ह॒विषा॒ जीव॑नाय॒ कम॑ज्ञातय॒क्ष्मादु॒त रा॑जय॒क्ष्मात्। ग्राहि॑र्ज॒ग्राह॒ यदि॑ वै॒तदे॑नं॒ तस्या॑ इन्द्राग्नी॒ प्र मु॑मुक्तमेनम्’ (ऋ० १०।१६१।१) इति च। अत्र इन्द्राग्नी वाय्वग्नी इति ज्ञेयम् ॥ अथ तृतीयः—राजपरः। अहम् (जिष्णोः) विजयशीलस्य (अश्वस्य) अश्वरूपस्य, अश्ववद् राष्ट्ररथं वहतः इत्यर्थः, (वाजिनः) अन्नाद्यैश्वर्यवतो, बलवतः, संग्रामसमर्थस्य च। वाज इत्यन्ननाम, बलनाम, संग्रामनाम च। निघं० २।७, २।९, २।१७। वाजी वेजनवान् निरु० २।२८। (दधिक्राव्णः३) यो राज्ये दधीनि बहुजनद्रव्यादिधारकाणि विमानादियानानि क्रमयति सञ्चालयति तस्य नृपतेः (अकारिषम्) राज्यनियमानां पालनं करोमि। (सः) असौ नृपतिः सदाचारमार्गे प्रवर्त्य (नः) अस्माकम् (मुखा) मुखानि (सुरभि) यशःसौरभवन्ति (करत्) कुर्यात्, किञ्च (नः) अस्माकम् प्रजाजनानाम् (आयूंषि) आयुर्वर्षाणि (प्र तारिषत्) प्रवर्द्धयेत्। आयुर्वेदशिक्षणेन, चिकित्सासुप्रबन्धेन, कृषिवाणिज्यपशुपालनोत्कर्षेण, हिंसोपद्रवादिनिवारणेन, शत्रुच्छेदेन एवंविधसकलोपायप्रचारणेन राष्ट्रवासिनोऽकालमृत्युग्रासात् संरक्षेदित्यर्थः ॥७॥४ वेदे ‘दधिक्राः’ ‘दधिक्रावा’ चेत्युभयमपि प्रयुक्तम्। उभयोः प्रत्ययस्यैव भेदः, प्रथमं विट्प्रत्ययान्तं, द्वितीयं च वनिप्प्रत्ययान्तम्। ‘दधिक्राः’ इति पदं यास्काचार्य एवं निर्वक्ति—‘दधिक्रा इत्येतद् दधत् क्रामतीति वा, दधत् क्रन्दतीति वा, दधदाकारी भवतीति वा। तस्याश्ववद् देवतावच्च निगमा भवन्ति (निरु० २।२७)’ इति। तदेव निर्वचनं ‘दधिक्रावा’ इति पदस्यापि तन्मते विज्ञेयम् ॥ अत्र श्लेषालङ्कारः तृतीयचतुर्थपादयोरन्त्यानुप्रासश्च। ‘दधिक्राव्णः, अश्वस्य, वाजिनः’ इति सर्वेषामश्ववाचित्वात् पुनरुक्तत्वप्रतीतेः, यौगिकत्वेन च तत्परिहारात्, पुनरुक्तवदाभासोऽलङ्कारः ॥७॥

    भावार्थः

    परमात्मस्तवनेनाग्निहोत्रेण राजनियमपालनेन चास्माभिर्यशःसौरभं दीर्घायुष्यं च प्राप्तव्यम् ॥७॥ यजुर्वेदभाष्ये महीधरः कात्यायनश्रौतसूत्रस्याश्वमेधविधिमनुसरन् ‘महिषीं’ यजमानस्य प्रथमपरिणीतां पत्नीमश्वसमीपसुप्तामुत्थाप्य पुरुषा अध्वर्युब्रह्मोद्गातृहोतृक्षत्तारो मन्त्रं पठेयुरित्याह। किञ्च ‘सुरभि नो मुखा करत्’ इति व्याचक्षाणः ‘अश्लीलभाषणेन दुर्गन्धं प्राप्तानि मुखानि सुरभीणि यज्ञः करोत्विति’ प्रतिपादयाञ्चक्रे। तत्सर्वं प्रलपितमात्रम्। कः खलु सुधीर्यः पूर्वमश्लीलभाषणं कृत्वा मुखानि दुर्गन्धतां नयेत्, पश्चाच्च शोधनोपायमन्विष्येत्। ‘प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम्’ इति न्याय एव किमिति नानुस्रियेत ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ४।३९।४, य० २३।३२ ऋषिः प्रजापतिः, अ० २०।१३७।३। २. दधिक्रावा अग्निविशेषः। ....धारयति क्रामयति देशान्तरं प्रापयति इति दधिक्रावा अग्निः। क्रमेर्वनिप्प्रत्यये ‘विड्वनोरनुनासिकस्यात्’ (पा० ६।७।४१) इति अनुनासिकस्याकारादेशः। दधिक्राव्णो देवस्य परिचरणम् अकारिषम्—इति भ०। ३. (दधिक्रावाणम्) धारकाणां यानानां क्रामयितारं गमयितारम् इति ऋ० ७।४४।३ भाष्ये द०। ४. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतम् ऋग्भाष्ये यजुर्भाष्ये च राजप्रजाविषये व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let us praise the Victorious, All-pervading, Powerful God, Who leads us on the right path, and prolongs the days of our life.

    Translator Comment

    Western scholars have translated Dadhkravan as a most distinguished race-horse, whereas the word means God, Who absorbs the universe in Himself and regulates it.

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    Meaning

    We sing in praise of Dadhikra, divine energy, victorious, all achieving spirit and power, who may, we pray, refine our sense of taste and other refinements and may help us live a full and healthy life across the floods of existence. (Rg. 4-39-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ


    પદાર્થ :  (जिष्णोः) વિજય પ્રાપ્ત કરનાર , (अश्वस्य) વ્યાપક , (वाजिनः) અમૃત અન્નયુક્ત , (दधिक्रव्णः) જગતને ધારણ કરનાર પરમાત્માની (अकारिषम्) સ્તુતિ કરું. (नः) અમારા (मुखा) મુખમાં અર્થાત્ નાસિકા , જિહ્વા આદિ જ્ઞાનેન્દ્રિયોને (सुरभिः) સુંદર સુગંધયુક્ત (करत्) કરે  (नः आयूंषि) અમારી આયુઓની (प्रतारिषत्) વૃદ્ધિ કરે. (૭)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પવિત્રદેવ પરમાત્મા જે વિજય પ્રાપ્ત કરનાર, અમૃતયોગના કારણે વ્યાપક છે, તે અમારી ઇન્દ્રિયોને સુવાસિત કરનાર અને આયુઓની વૃદ્ધિ કરનાર છે, તેની સ્તુતિ કર્યા કરીએ. (૭) 

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    پربُھو کے گُن گان سے آیُو بڑہتی ہے!

    Lafzi Maana

    (جشِنود دھی کراونہ) سب کو وِجے کرنے والے جگت کرتا (اشوسیہ واجِنہ) ہر جگہ موجود شکتی شالی پرمیشور کی (اکارِشم) سُتتی میں نے کی۔ اِس کیرتن سے وہ اِندر (نہ مکھا سربھی کرت) ہمارے منہ ناک وغیرہ سبھی اعضار کو اپنی خُوشبُو یا آسیس سے طاقت دیتا رہے اور (نہ آیُونشی پرتارِشت) ہماری عمرِ حیات بڑھائے، بڑھاتا ہے۔

    Tashree

    حمد و ثنا سے اِیش کا کرتے ہیں جب گُن گان ہم، عمر اور طاقت بڑھاتا دے کے آسیس ایک دم۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वराची स्तुती, अग्निहोत्र व राजनियमांचे पालन याद्वारे आम्ही यशसौरभ व दीर्घायुष्य प्राप्त करावे ॥७॥

    टिप्पणी

    महीधरने या मंत्राबाबत यजुर्वेद भाष्यात कात्यायन श्रौतसूत्राच्या अश्वमेधविधीचे अनुसरण करत हे लिहिले आहे की, घोड्याजवळ झोपलेल्या यजमानाच्या प्रथम परिणीत पत्नी महिषीला तेथून उठवून अध्वर्यु, ब्रह्मा, उद्गाता, होता व क्षत्रा नामक ऋत्विजाने हा मंत्र म्हणावा. त्याबरोबरच ‘सुरभि नो मुखा करत’च्या व्याख्येत लिहिलेले आहे की अश्लील भाषणाने दुर्गंधित झालेल्या मुखांना यज्ञाने सुगंधित करावे. हा सर्व प्रलापमात्र आहे. असा कोण बुद्धिमान असेल जो प्रथम अश्लील भाषण करून मुखांना दुर्गंधित करेल व पुन्हा त्याच्या शुद्धीचा उपाय शोधेल? ‘चिखल फासून तो धुण्यापेक्षा चिखलाला हात न लावणेच अधिक चांगले आहे’ या नीतीचे अनुसरण का करू नये?

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    विषय

    मंत्राची देवता दधिक्रावा अग्नी, त्याची परमात्म्याची यज्ञाग्रीची व राजाची स्तुती -

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) - (परमात्मपर अर्थ) मी (जिष्णोः) विजयशील आणि विजय प्रदान करणाऱ्या (अश्वस्य) सर्व शुभ गुणवान (वाजिनः) शक्ती व विज्ञानाने संपन्न अशा (दधिक्राव्णः) पृथ्वी, चंद्र, सूर्य, नक्षत्र आदी लोक त्यांच्या, त्यांच्या धुरीवर धारण अथवा कोणा अन्य ग्रह, पिंडाच्या भोवती परिक्रमित करणाऱ्या (परमेश्वराचा स्वागत करतो वा त्याचे आभार मानतो) अथवा (दधि क्राव्णः) स्तोत्र धारक, धर्म-धारक व सद्गुण- धारक लोकांना सद्गुण धारण करविणाऱ्या जगदीश्वराचे (अकारिषम्) स्वागत करतो. स्वागत - वचन व सत्काराचा स्वीकार करून तो जगदीश्वर (नः) आम्हा उपासकांचे मुख (सुरक्षि) सुवासित (करत) करा म्हणजे कटु-वचन, पर - निंदा आदीपासून दूर ठेवो तसेच मधुर भाण व सत्यभाषण रूप सौरभाने सुरभित करो आणि (नः) आमचे (आयूंषि) आयुष्य (९ तारिषत्) दीर्घ करो.।। द्वितीय अर्थ - (यज्ञाग्नीपर अर्थ) - (जिष्णोः) रोग आदींवर विजय मिळविणाऱ्या व विजय संपादन करविणाऱ्या (अश्वस्य) शीघ्र पसरणाऱ्या आणि (वाजिनः) पौष्टिक हृव्य आदीद्वारे संपन्न (यज्ञाग्नीचा मी उपयोग करतो) (दधिक्राव्णः) हृवी पदार्थ स्वीकारून त्याचे रूपांतर करून पदार्थांना देशांतराला पोचविणाऱ्या त्या आवहनीय अग्नीचा मी (अकारिषम्) यज्ञाग्नीत उपयोग करतो. म्हणजे हृव्य पदार्थ अग्नीत टाकतो. तो यज्ञाग्नी (नः) आमचे मुख अर्थात नासिका प्रदेश (सुरभि) (करत्) सुगंधित करो आणि (नः) आमचे (आयूंषि) आयुष्य (प्रतारिषत्) वृद्धिंगत करो. यज्ञाग्नीने आम्हा यज्ञकर्त्यांचे आयुष्य वाढवावे, (ही प्रार्थना) तात्पर्य हे की नित्य नेमाने ़अग्निहोत्र करणारे आम्ही याज्ञिकजन दीर्घायु व्हावेत.।। अग्नीत आहुत केलेल्या सुवासिक द्रव्याद्वारे सुगंधित झालेला वायू श्वास- प्रश्वास प्रक्रियेने फुफ्फुसापर्यंत जातो व तिथे रक्ताची शुद्धी करून रक्तात जीवनदायी तत्त्व समाविष्ट करतो. शिवाय रक्ताच्या मालिव्याचे हरण करून दोष बाहेर काढतो. वेदात सांगितलेले आहेच की ‘‘हे वायू, तू आपल्यासोबत औषधी शरीरात आण व त्यात जे मळ वा दोष असतील, त्यांना बाहेर घालव. तू सर्व रोगांवर औषध आहेस. तूच जाणकार वैद्यांचा दूत होऊन सर्वत्र विवरण करतोस.’’ (ऋ १०/१३७/३) एका अन्य मंत्रात वैद्य म्हणत आहे - ‘‘हे राजे, मी हवीद्वारे तुला नवजीवन देत आहे. तुला अज्ञात रोगापासून मुक्त करीन आणि राजयक्ष्या रोगाच्या पाशातून तुला सोडवीन. जर तुला संधिवाताने धरले असेल तर वायू आणि अग्नी तुला त्यापासूनही सोडवतील.’’ (ऋ १०/१६१/१)’’ तृतीय अर्थ - (राजापर अर्थ) - (जिष्णोः) विजयशील (अश्वस्य) अशाप्रमाणे राष्ट्राच्या रथीचे संचालन करणारे (वाजिनः) अन्न-धान्य, शक्तीमानी समृद्ध व युद्धात प्रवीण असलेल्या (दधिक्राव्णः) अनेकांना जो आघार, विमानादी यानांच्या समूह जवळ असणारा असा जो राजा,त्याने केलेल्या नियमांचे मी (एक जागरूक प्रजाजन) पालन करतो. (सः) तो राजा (नः) आम्हा प्रजाजनांचे (मुखा) मुख (सुरभि) यशाच्या सुगंधाने (शुभ व मधुर वचनाने (करत्) सुशोभित करो आणि (नः) आमच्या (आपूंषि) आयुष्याची वर्षे (प्रतारिषट्) वाढवो. तात्पर्य हे की आयुर्वेद शिक्षण, चिकित्सेची व्यवस्था, कृषी- व्यापार- पशुपालन कार्यात उत्कर्ष, हिंसा- उपद्रवायीचे निवारम, शत्रु पारिपव्यादी सर्व उपायांद्वारे राजाने सर्व राष्ट्रवासीजनांना अकाल मृत्यूपासून वाचवावे.।। ७।।

    भावार्थ

    परमेश्वराची स्तुती, अग्निहोत्र आणि राजनियमांचे पालन याद्वारे आम्ही यशः सौरभ व दीर्घायुष्य प्राप्त केले पाहिजे. ।। ७।। महीधराने या मंत्रावर भाष्य करताना त्याने केलेल्या यजुर्वेद भाष्यातील कात्यायन श्रौतसूत्राच्या अश्वमेधविधीचे अनुसरण केले आहे. त्याने लिहिले आहे की यजमानाची प्रथम परिणीत पत्नी, जी घोड्याजवळ झोपलेली आहे. तिला तिथून उठवून अध्वर्यू, ब्रह्मा, उद्माता, होता आणि क्षता नावाच्या या ऋत्विजांनी या मंत्राचे वाचन करावे. तसेच ‘सुरभि नो मुखा करत’ या वाक्याची व्याख्या करीत लिहिले आहे की अश्लील भाषणामुळे दुर्गंधित झालेल्या मुखाला यज्ञाद्वारे सुगंधित करावे’ हे सर्व निव्वळ प्रलापभाग आहे. कोण शहाणा माणूस असे करील की आधी अश्लील भाषण करून मुख दुर्गंधित करील आणि नंतर त्याच्या शुद्धीकरणाच्या उपायांचा सोध करील ? ‘चिखलात हात बुडवून हात घाण करून नंतर धूत बसण्यापेक्षा चिखलात हात न घालणेच शहाणपणाचे असते.’ या पद्धतीचा अवलंब का करू नये ?

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. तृतीय व चतुर्थ चरणात अन्त्यानुप्रासही आहे. दधिक्राषा, अश्व आणि वाजी हे तिन्ही शब्द अश्ववाचक असल्यामुळे इथे पुनरुक्ती वाटते, पण या शब्दांचा यौगिक अर्थ केल्यानंतर पुनरुक्ती वाटणारा दोष नाहीसा होता. यामुळे येथे पुनरुक्तवदाभास अलंकार आहे.।। ७।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    ஜயசீல குதிரைபோல் வேகமாயுள்ள 'ததிக் கிராவணத்தை' தேவஸ்துதியை துதி செய்கிறேன். எங்கள் அங்கங்களை சுகந்தமுடனாகட்டும். எங்கள் வாழ் நாட்களை வளரச் செய்ய வேண்டும்.

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