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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 362
ऋषिः - प्रियमेध आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣡र्च꣢त꣣ प्रा꣡र्च꣢ता नरः꣣ प्रि꣡य꣢मेधासो꣣ अ꣡र्च꣢त । अ꣡र्च꣢न्तु पुत्र꣣का꣢ उ꣣त꣢꣫ पुर꣣मि꣢द्धृ꣣꣬ष्ण्व꣢꣯र्चत ॥३६२॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡र्च꣢꣯त । प्र । अ꣣र्चत । नरः । प्रि꣡य꣢꣯मेधासः । प्रि꣡य꣢꣯ । मे꣣धासः । अ꣡र्च꣢꣯त । अ꣡र्च꣢꣯न्तु । पु꣣त्रकाः꣢ । पु꣣त् । त्रकाः꣢ । उ꣣त꣢ । पु꣡र꣢꣯म् । इत् । धृ꣣ष्णु꣢ । अ꣣र्चत ॥३६२॥


स्वर रहित मन्त्र

अर्चत प्रार्चता नरः प्रियमेधासो अर्चत । अर्चन्तु पुत्रका उत पुरमिद्धृष्ण्वर्चत ॥३६२॥


स्वर रहित पद पाठ

अर्चत । प्र । अर्चत । नरः । प्रियमेधासः । प्रिय । मेधासः । अर्चत । अर्चन्तु । पुत्रकाः । पुत् । त्रकाः । उत । पुरम् । इत् । धृष्णु । अर्चत ॥३६२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 362
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
हे (नरः) नेतृत्वशक्ति से युक्त स्त्री-पुरुषो ! तुम (अर्चत) पूजा करो। हे (प्रियमेधासः) बुद्धिप्रेमी जनो ! (अर्चत) पूजा करो। (पुत्रकाः उत) तुम्हारे पुत्र-पुत्री भी (अर्चन्तु) पूजा करें। (पुरम् इत्) पूर्ति ही करनेवाले, (धृष्णु) अन्तःशत्रुओं तथा विघ्नों के धर्षणकर्ता इन्द्र जगदीश्वर की (अर्चत) पूजा करो ॥३॥ इस मन्त्र में ‘अर्चत’ की पुनरुक्ति अधिकता, निरन्तरता तथा अवश्यकर्तव्यता को द्योतित करने के लिए है ॥३॥

भावार्थ - सब स्त्रीपुरुषों को चाहिए कि अपने पुत्र-पुत्री आदि परिवार सहित प्रातः-सायं नियम से परमेश्वर की पूजा किया करें। पूजा किया हुआ परमेश्वर पूजकों के मार्ग में आये शत्रुओं तथा विघ्नों को हटाकर उन्हें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से भरपूर करता है ॥३॥

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