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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 364
ऋषिः - प्रियमेध आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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वि꣣श्वा꣡न꣢रस्य व꣣स्प꣢ति꣣म꣡ना꣢नतस्य꣣ श꣡व꣢सः । ए꣡वै꣢श्च चर्षणी꣣ना꣢मू꣣ती꣡ हु꣢वे꣣ र꣡था꣢नाम् ॥३६४॥

स्वर सहित पद पाठ

वि꣣श्वा꣡न꣢रस्य । वि꣣श्व꣢ । नर꣣स्य । वः । प꣡ति꣢꣯म् । अ꣡ना꣢꣯नतस्य । अन् । आ꣣नतस्य । श꣡व꣢꣯सः । ए꣡वैः꣢꣯ । च꣣ । चर्षणीना꣢म् । ऊ꣣ती꣢ । हु꣣वे । र꣡था꣢꣯नाम् ॥३६४॥


स्वर रहित मन्त्र

विश्वानरस्य वस्पतिमनानतस्य शवसः । एवैश्च चर्षणीनामूती हुवे रथानाम् ॥३६४॥


स्वर रहित पद पाठ

विश्वानरस्य । विश्व । नरस्य । वः । पतिम् । अनानतस्य । अन् । आनतस्य । शवसः । एवैः । च । चर्षणीनाम् । ऊती । हुवे । रथानाम् ॥३६४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 364
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे इन्द्र जगदीश्वर ! (विश्वानरस्य) सब जगत् के सञ्चालक (अनानतस्य) कहीं भी न झुकनेवाले अर्थात् पराजित न होनेवाले (शवसः) बल के (पतिम्) अधीश्वर (वः) आपको (चर्षणीनाम्) मनुष्यों की (एवैः) सत्कामनाओं की पूर्तियों के लिए, और (रथानाम्) उनके शरीररूप रथों को (ऊती) लक्ष्य के प्रति प्रेरित करने तथा रक्षित करने के लिए, मैं (हुवे) पुकारता हूँ ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे राजन् ! (विश्वानरस्य) सबसे आगे जानेवाली, (अनानतस्य) शत्रुओं के आगे न झुकनेवाली अर्थात् उनसे पराजित न होनेवाली (शवसः) सेना के (पतिम्) स्वामी (वः) आपको (चर्षणीनाम्) प्रजाजनों की (एवैः) महत्त्वाकांक्षाओं तथा प्रारब्ध कार्यों की पूर्ति के लिए, और (रथानाम्) विमानादि यानों को (ऊती) चलाने के लिए (हुवे) पुकारता हूँ ॥५॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥५॥

भावार्थ - जगदीश्वर ही जीवात्माओं को उनकी जीवनयात्रा के लिए कर्मानुसार उत्कृष्ट मानव शरीररूप रथ प्रदान करता है। वैसे ही राजा राष्ट्र में प्रजाजनों की शीघ्र यात्रा के लिए विमानादि रथों का निर्माण कराये ॥५॥

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