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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 368
ऋषिः - त्रित आप्त्यः
देवता - विश्वेदेवाः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
7
अ꣣मी꣡ ये दे꣢꣯वा꣣ स्थ꣢न꣣ म꣢ध्य꣣ आ꣡ रो꣢च꣣ने꣢ दि꣣वः꣢ । क꣡द्ध꣢ ऋ꣣तं꣢꣫ कद꣣मृ꣢तं꣣ का꣢ प्र꣣त्ना꣢ व꣣ आ꣡हु꣢तिः ॥३६८॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣मी꣡इति꣢ । ये दे꣣वाः । स्थ꣡न꣢꣯ । स्थ । न꣣ । म꣡ध्ये꣢꣯ । आ । रो꣣चने꣢ । दि꣣वः꣢ । कत् । वः꣣ । ऋत꣢म् । कत् । अ꣣मृ꣡त꣢म् । अ꣣ । मृ꣡त꣢꣯म् । का꣢ । प्र꣣त्ना꣢ । वः꣢ । आ꣡हु꣢꣯तिः । आ । हु꣣तिः ॥३६८॥
स्वर रहित मन्त्र
अमी ये देवा स्थन मध्य आ रोचने दिवः । कद्ध ऋतं कदमृतं का प्रत्ना व आहुतिः ॥३६८॥
स्वर रहित पद पाठ
अमीइति । ये देवाः । स्थन । स्थ । न । मध्ये । आ । रोचने । दिवः । कत् । वः । ऋतम् । कत् । अमृतम् । अ । मृतम् । का । प्रत्ना । वः । आहुतिः । आ । हुतिः ॥३६८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 368
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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विषय - अगले मन्त्र के देवता ‘विश्वेदेवाः’ हैं। इसमें देवों के विषय में तीन प्रश्न उठाये गये हैं।
पदार्थ -
हे (देवाः) अपने-अपने विषय के प्रकाशक ज्ञानेन्द्रियरूप देवो ! (अमी ये) ये जो तुम (दिवः) उर्ध्वस्थान सिर के (मध्ये) अन्दर (रोचने) रोचमान अपने-अपने गोलक में (आ स्थन) आकर स्थित हुए हो, अथवा, हे (देवाः) प्रकाशक सूर्यकिरणों ! (अमी ये) ये जो तुम (दिवः) द्युलोक के (मध्ये) बीच (रोचने) दीप्तिमान् सूर्य में (आ स्थन) आकर स्थित हो, अथवा, हे (देवाः) ज्ञान के प्रकाश से युक्त तथा ज्ञान के प्रकाशक विद्वानो ! (अमी ये) ये जो तुम (दिवः) कीर्ति से प्रकाशित राष्ट्र के (मध्ये) अन्दर (रोचने) यशस्वी पद पर (आ स्थन) नियुक्त हुए हो, उन तुमसे पूछता हूँ कि (कत्) क्या (वः) तुम्हारा (ऋतम्) सत्य है, (कत्) क्या (अमृतम्) अमरतत्त्व है, (का) और क्या (वः) तुम्हारी (प्रत्ना) पुरातन (आहुतिः) होम क्रिया है? ॥९॥
भावार्थ - यहाँ उत्तर दिये बिना ही केवल प्रश्न करके जिज्ञासा उत्पन्न की गयी है कि इन प्रश्नों के उत्तर अपनी प्रतिभा से स्वयं दो। इन प्रश्नों के उत्तर ये हो सकते हैं। सिर में जो ज्ञानेन्द्रियरूप देव स्थित हैं, उनका ऋत है जीवात्मा में सत्यज्ञान को पहुँचाना, उनका अमृत है वास्तविक इन्द्रियतत्त्व, जो देह के साथ इन्द्रिय-गोलकों के विनष्ट हो जाने पर भी मरता नहीं, प्रत्युत सूक्ष्म शरीर में विद्यमान रहता है, उनकी सनातन आहुति है शरीररक्षारूप यज्ञ में तथा ज्ञानप्रदानरूप यज्ञ में अपना होम करना। इसी प्रकार द्युलोकस्थ सूर्य में जो किरण-रूप देव स्थित हैं, उनका ऋत है वह सत्यनियम, जिसके अनुसार प्रतिदिन सूर्योदय के साथ वे आकाश और भूमण्डल में व्याप्त होते हैं, उनका अमृत है शुद्ध मेघ-जल, जिसे वे समुद्र आदि से भाप बनाकर ऊपर ले जाते हैं, उनकी सनातन आहुति है मेघजल का पार्थिव अग्नि में होम करना, जिससे पृथिवी पर ओषधि, वनस्पति आदि उगती हैं और प्राणी जीवन धारण करते हैं, अथवा सब ग्रहोपग्रहों में अपना होम करना, जिससे पृथिवी, मङ्गल, बुध, चन्द्रमा आदि प्रकाशित होते हैं। इसी प्रकार राष्ट्र में जो विद्या दान करनेवाले विद्वान लोग हैं, उनका ऋत है वह सत्यनिष्ठा जिसका अनुसरण कर वे विद्यादान में दत्तचित्त होते हैं; उनका अमृत है वह ज्ञान जिसे वे सत्पात्रों को देते हैं, उनकी सनातन आहुति है अध्ययन-अध्यापन रूप यज्ञ में अपना होम करना, इत्यादि सुधी जनों को स्वयं ऊहा कर लेनी चाहिए ॥९॥ विवरणकार माधव ने यह देखकर कि इस ऋचा का ऋषि आप्त का पुत्र त्रित है और देवता ‘विश्वेदेवाः’ है, इस पर निम्नलिखित इतिहास लिखा है-आप्त ऋषि के तीन पुत्र थे, एकत, द्वित और त्रित। उन्होंने यज्ञ करने की इच्छा से यजमानों से गौएँ माँगी और पा लीं। उन्हें लेकर वे घर चल पड़े। जब वे सरस्वती नदी के किनारे-किनारे जा रहे थे तब परले पार बैठे गवादक ने उन्हें देख लिया। वह उठा और सरस्वती के जलों को पार करके रात में उसने उनको डराया। जब वे डरकर भागे तब उनमें से त्रित घास-फूस और लताओं से ढके हुए एक निर्जल कुएँ में गिर पड़ा। कुएँ में गिरने का कारण अन्य कुछ लोग यह बताते हैं कि एकत और द्वित को कम गौएँ मिली थीं, त्रित को बहुत सारी मिल गयी थीं, इसलिए जान-बूझकर उन्होंने त्रित को कुएँ में धकेल दिया था। वहीं उसके मन में आया कि मैंने यज्ञ का संकल्प किया था, अब यदि बिना यज्ञ किये ही मर जाता हूँ तो मेरा कल्याण नहीं होगा, इसलिए कोई ऐसा उपाय करना चाहिए कि यहाँ कुएँ में पड़ा-पड़ा ही मैं सोम-पान कर लूँ। वह यह विचार कर ही रहा था कि अकस्मात् ही उसने उसी कुएँ में एक लता उतरी हुई देखी। उसने उसे लेकर और यह सोम ही है, ऐसा मन में निश्चय करके अन्य भी यज्ञ-साधनों का मन में संकल्प करके बजरी को सोम कूटने के सिल-बट्टे बनाकर उस लता को अभिषुत किया और अभिषुत करके देवों को पुकारा। पुकारे गये देवों को पुकारे जाने का कारण समझ में न आया, अतः वे आविग्न हो उठे। बृहस्पति ने भी पुकार को सुना और सुनकर वह देवों से बोला कि त्रित का यज्ञ है, वहाँ चलते हैं। तब वे सब देव वहाँ आये। उन्हें आया देखकर कुएँ से उद्धार की इच्छावाले त्रित ने उनकी स्तुति की और उन्हें उपालम्भ दिया कि तुम्हारा सत्यासत्य का विवेक नष्ट हो गया है, तुम बड़े अकृतज्ञ हो कि मुझे इस कुएँ से बाहर नहीं निकालते हो। त्रित का उपालम्भ ही प्रस्तुत ऋचा में प्रकट किया गया है, इत्यादि। यह सब कल्पना-कला का विलास है, वास्तविकता इसमें कुछ भी नहीं है, यह सुधी जन स्वयं ही समझ लें ॥
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