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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 413
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
16
प्रे꣢ह्य꣣भी꣡हि꣢ धृष्णु꣣हि꣢꣫ न ते꣣ व꣢ज्रो꣣ नि꣡ य꣢ꣳसते । इ꣡न्द्र꣢ नृ꣣म्ण꣢꣫ꣳहि ते꣣ श꣢वो꣣ ह꣡नो꣢ वृ꣣त्रं꣡ जया꣢꣯ अ꣣पो꣢ऽर्च꣣न्न꣡नु꣢ स्व꣣रा꣡ज्य꣢म् ॥४१३॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । इ꣣हि । अभि꣢ । इ꣣हि । धृष्णुहि꣢ । न । ते꣣ । व꣡ज्रः꣢꣯ । नि । यँ꣣सते । इ꣡न्द्र꣢꣯ । नृ꣣म्ण꣢म् । हि । ते꣣ । श꣡वः꣢꣯ । ह꣡नः꣢꣯ । वृ꣣त्र꣢म् । ज꣡याः꣢꣯ । अ꣣पः꣢ । अ꣡र्च꣢꣯न् । अ꣡नु꣢꣯ । स्व꣣रा꣡ज्य꣢म् । स्व꣣ । रा꣡ज्य꣢꣯म् ॥४१३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रेह्यभीहि धृष्णुहि न ते वज्रो नि यꣳसते । इन्द्र नृम्णꣳहि ते शवो हनो वृत्रं जया अपोऽर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥४१३॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । इहि । अभि । इहि । धृष्णुहि । न । ते । वज्रः । नि । यँसते । इन्द्र । नृम्णम् । हि । ते । शवः । हनः । वृत्रम् । जयाः । अपः । अर्चन् । अनु । स्वराज्यम् । स्व । राज्यम् ॥४१३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 413
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
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विषय - अगले मन्त्र में जीवात्मा, राजा तथा सेनापति को विजयार्थ प्रोत्साहित किया जा रहा है।
पदार्थ -
हे (इन्द्र) जीवात्मन्, राजन् वा सेनापते ! तू (प्रेहि) आगे बढ़ (अभीहि) आक्रमण कर, (धृष्णुहि) शत्रुओं का पराभव कर। (ते) तेरे (वज्रः) वज्रतुल्य शत्रुविनाश-सामर्थ्य का अथवा शस्त्रास्त्र-समूह का (न नियंसते) अवरोध या प्रतिकार नहीं किया जा सकता। (ते) तेरा (शवः) बल (नृम्णं हि) तेरे लिए धनरूप है। तू (स्वराज्यम् अनु) स्वराज्य के अनुकूल (अर्चन्) कर्म करता हुआ, (वृत्रम्) पाप एवं शत्रु को (हनः) विनष्ट कर दे, (अपः) शत्रु से प्रतिरुद्ध सत्कर्मसमूह को (जयाः) जीत ले ॥५॥ इस मन्त्र में वीर रस है, श्लेषालङ्कार है, अनेक क्रियाओं के साथ एक कारक का योग होने से दीपक भी है ॥५॥
भावार्थ - मनुष्य का आत्मा, राजा और सेनाध्यक्ष जब अपनी शत्रुओं से दुर्दमनीय महान् शक्ति को पहचान लेते हैं, तब सब आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं को धूल में मिलाकर निश्चय ही विजयी होते हैं ॥५॥
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