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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 415
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣢क्ष꣣न्न꣡मी꣢मदन्त꣣ ह्य꣡व꣢ प्रि꣣या꣡ अ꣢धूषत । अ꣡स्तो꣢षत꣣ स्व꣡भा꣢नवो꣣ वि꣢प्रा꣣ न꣡वि꣢ष्ठया म꣣ती꣢꣫ योजा꣣꣬ न्वि꣢꣯न्द्र ते꣣ ह꣡री꣢ ॥४१५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡क्ष꣢꣯न् । अ꣡मी꣢꣯मदन्त । हि । अ꣡व꣢꣯ । प्रि꣣याः꣢ । अ꣣धूषत । अ꣡स्तो꣢꣯षत । स्व꣡भा꣢꣯नवः । स्व । भा꣣नवः । वि꣡प्राः꣢꣯ । वि । प्राः꣣ । न꣡वि꣢꣯ष्ठया । म꣣ती꣢ । यो꣡ज꣢꣯ । नु । इ꣣न्द्र । ते । ह꣢री꣣इ꣡ति꣢ ॥४१५॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रिया अधूषत । अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजा न्विन्द्र ते हरी ॥४१५॥
स्वर रहित पद पाठ
अक्षन् । अमीमदन्त । हि । अव । प्रियाः । अधूषत । अस्तोषत । स्वभानवः । स्व । भानवः । विप्राः । वि । प्राः । नविष्ठया । मती । योज । नु । इन्द्र । ते । हरीइति ॥४१५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 415
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
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विषय - अगले मन्त्र में विद्वानों के सत्कार, उनके उपदेश के श्रवण, तदनुकूल आचरण आदि का विषय है।
पदार्थ -
(विप्राः) इन विद्वान अतिथियों ने (अक्षन्) भोजन कर लिया है, (अमीमदन्त हि) निश्चय ही ये तृप्त हो गये हैं। (प्रियाः) इन प्रिय अतिथियों ने (अव अधूषत) मुझ आतिथ्यकर्ता के दोषों को प्रकम्पित कर दिया है। (स्वभानवः) स्वकीय तेज से युक्त इन्होंने (नविष्ठया मती) नवीनतम मति के द्वारा (अस्तोषत) स्वस्ति का आशीर्वाद दिया है। अब, (इन्द्र) हे मेरे आत्मन्, तू (नु) शीघ्र ही (ते हरी) अपने ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय रूप घोड़ों को (युङ्क्ष्व) नियुक्त कर अर्थात् विद्वान् अतिथियों के उपदेश पर मनन, चिन्तन और आचरण करने का प्रयत्न कर ॥७॥ इस मन्त्र में अक्षन्, अमीमदन्त, अधूषत, अस्तोषत इन अनेक क्रियाओं में एक कर्तृकारक के योग के कारण दीपक अलङ्कार है। ‘षत’ की एक बार आवृत्ति में छेकानुप्रास है ॥७॥
भावार्थ - गृहस्थों से सत्कार पाये हुए अतिथि जन अपने बहुमूल्य उपदेश से उन्हें कृतार्थ करें, और गृहस्थ जन प्रयत्नपूर्वक उसके अनुकूल आचरण करें ॥७॥ इस मन्त्र में यजुर्वेदभाष्य में उवट और महीधर ने कात्यायनश्रौतसूत्र का अनुसरण करते हुए यह व्याख्या की है कि पितृयज्ञ कर्म में जो पितर आये हैं, उन्होंने हमारे दिये हुए हविरूप अन्न को खा लिया है और वे तृप्त हो गये हैं आदि। इस विषय में यह जान लेना चाहिए कि मृत पितरों को भोजन देना आदि वेदसम्मत नहीं है ॥
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