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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 43
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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आ꣡ नो꣢ अग्ने वयो꣣वृ꣡ध꣢ꣳ र꣣यिं꣡ पा꣢वक꣣ श꣡ꣳस्य꣢म् । रा꣡स्वा꣢ च न उपमाते पु꣣रु꣢स्पृह꣣ꣳ सु꣡नी꣢ती꣣ सु꣡य꣢शस्तरम् ॥४३॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । नः꣣ । अग्ने । वयोवृ꣡धम्꣢ । वयः । वृ꣡ध꣢꣯म् । र꣣यि꣢म् । पा꣣वक । शँ꣡स्य꣢꣯म् । रा꣡स्वा꣢꣯ । च꣣ । नः । उपमाते । उप । माते । पुरुस्पृ꣡ह꣢म् । पु꣣रु । स्पृ꣡ह꣢꣯म् । सु꣡नी꣢꣯ती । सु । नी꣣ती । सु꣡य꣢꣯शस्तरम् । सु । य꣣शस्तरम् ॥४३॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो अग्ने वयोवृधꣳ रयिं पावक शꣳस्यम् । रास्वा च न उपमाते पुरुस्पृहꣳ सुनीती सुयशस्तरम् ॥४३॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । नः । अग्ने । वयोवृधम् । वयः । वृधम् । रयिम् । पावक । शँस्यम् । रास्वा । च । नः । उपमाते । उप । माते । पुरुस्पृहम् । पुरु । स्पृहम् । सुनीती । सु । नीती । सुयशस्तरम् । सु । यशस्तरम् ॥४३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 43
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4;
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विषय - परमेश्वर हमें कैसा धन दे, यह कहते हैं।
पदार्थ -
हे (पावक) चित्तशोधक, पतितपावन (अग्ने) सन्मार्गदर्शक परमात्मन् ! आप (वयोवृधम्) आयु को बढ़ानेवाले, (शंस्यम्) प्रशंसायोग्य (रयिम्) धन को (नः) हमारे लिए (आ) लाइए, और लाकर, हे (उपमाते) उपमानभूत, सर्वोपमायोग्य परमात्मन् ! (पुरुस्पृहम्) बहुत अधिक चाहने योग्य अथवा बहुतों से चाहने योग्य, (सुयशस्तरम्) अतिशय कीर्तिजनक उस धन को (सुनीती) सन्मार्ग पर चलाकर (नः) हमें (रास्व च) प्रदान भी कीजिए ॥९॥
भावार्थ - परमेश्वर की कृपा से और अपने पुरुषार्थ से सन्मार्ग का अनुसरण करते हुए हम चाँदी, सोना, पृथिवी का राज्य आदि भौतिक तथा विद्या, विनय, योगसिद्धि, मोक्ष आदि आध्यात्मिक धन का संचय करें, जो भरपूर धन हमारी आयु को बढ़ानेवाला तथा उजली कीर्ति को उत्पन्न करनेवाला हो ॥९॥
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