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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 461
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - विश्वेदेवाः
छन्दः - अत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣢स्तु꣣ श्रौ꣡ष꣢ट्पु꣣रो꣢ अ꣣ग्निं꣢ धि꣣या꣡ द꣢ध꣣ आ꣡ नु त्यच्छर्धो꣢꣯ दि꣣व्यं꣡ वृ꣢णीमह इन्द्रवा꣣यू꣡ वृ꣢णीमहे । य꣡द्ध꣢ क्रा꣣णा꣢ वि꣣व꣢स्व꣢ते꣣ ना꣡भा꣢ स꣣न्दा꣢य꣣ न꣡व्य꣢से । अ꣢ध꣣ प्र꣢ नू꣣न꣡मुप꣢꣯ यन्ति धी꣣त꣡यो꣢ दे꣣वा꣢꣫ꣳअच्छा꣣ न꣢ धी꣣त꣡यः꣢ ॥४६१॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡स्तु꣢꣯ । श्रौ꣡ष꣢꣯ट् । पु꣣रः꣢ । अ꣣ग्नि꣢म् । धि꣣या꣢ । द꣣धे । आ꣢ । नु । त्यत् । श꣡र्धः꣢꣯ । दि꣣व्य꣢म् । वृ꣣णीमहे । इन्द्रवायू꣢ । इ꣣न्द्र । वायू꣡इति꣢ । वृ꣣णीमहे । य꣢त् । ह꣣ । क्राणा꣢ । वि꣣व꣡स्व꣢ते । वि꣣ । व꣡स्व꣢꣯ते । ना꣡भा꣢꣯ । स꣣न्दा꣡य꣢ । स꣣म् । दा꣡य꣢꣯ । न꣡व्य꣢꣯से । अ꣡ध꣢꣯ । प्र । नू꣣न꣢म् । उ꣡प꣢꣯ । य꣣न्ति । धीत꣡यः꣢ । दे꣡वा꣢न् । अ꣡च्छ꣢꣯ । न । धी꣣त꣡यः꣢ ॥४६१॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्तु श्रौषट्पुरो अग्निं धिया दध आ नु त्यच्छर्धो दिव्यं वृणीमह इन्द्रवायू वृणीमहे । यद्ध क्राणा विवस्वते नाभा सन्दाय नव्यसे । अध प्र नूनमुप यन्ति धीतयो देवाꣳअच्छा न धीतयः ॥४६१॥
स्वर रहित पद पाठ
अस्तु । श्रौषट् । पुरः । अग्निम् । धिया । दधे । आ । नु । त्यत् । शर्धः । दिव्यम् । वृणीमहे । इन्द्रवायू । इन्द्र । वायूइति । वृणीमहे । यत् । ह । क्राणा । विवस्वते । वि । वस्वते । नाभा । सन्दाय । सम् । दाय । नव्यसे । अध । प्र । नूनम् । उप । यन्ति । धीतयः । देवान् । अच्छ । न । धीतयः ॥४६१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 461
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
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विषय - अगले मन्त्र के विश्वेदेवाः देवता हैं। इसमें परमात्मा, जीवात्मा, मन, प्राण, अग्नि, सूर्य, वायु एवं बिजली का विषय है।
पदार्थ -
प्रथम—अध्यात्म पक्ष में। (अस्तु श्रौषट्) हमारी प्रार्थना सुनी जाए, अर्थात् हमारी कामनाएँ पूर्ण हों। मैं (अग्निम्) अग्रनायक परमात्मा को (पुरः दधे) सम्मुख स्थापित करता हूँ। हम सब (त्यत्) उस अति उपयोगी (दिव्यं शर्धः) प्रकाशपूर्ण आत्म-बल का (नु) शीघ्र ही (आ वृणीमहे) उपयोग करते हैं। (इन्द्रवायू) मन और प्राण का (वृणीमहे) उपयोग करते हैं। (यत् ह) जब वे मन और प्राण (नाभा) केन्द्रभूत हृदय-प्रदेश में (सन्दाय) स्वयं को बाँधकर (नव्यसे) अतिशय प्रशंसनीय (विवस्वते) अज्ञानान्धकार के निवारक आत्मा के लिए (क्राणा) उच्च संकल्प, प्राणवशीकरण आदि कर्म को करनेवाले होते हैं, (अध) तब (नूनम्) अवश्य ही (धीतयः) धारणा, ध्यान, समाधियाँ (उप प्रयन्ति) योगी के समीप आ जाती हैं, सिद्ध हो जाती हैं, (न) जिस प्रकार (धीतयः) अङ्गुलियाँ (देवान् अच्छ) माता, पिता, अतिथि आदि विद्वानों को ‘नमस्ते’ करने के लिए (उप प्रयन्ति) तत्पर होती हैं ॥ द्वितीय—अधिदैवत पक्ष में। (अस्तु श्रौषट्) मेरा वचन सुना जाए। मैं (अग्निम्) भौतिक आग का (धिया) बुद्धि या कर्मकौशल से (पुरः दधे) शिल्पादि कर्मों में उपयोग लेता हूँ। हम सभी (त्यत्) उस (दिव्यम्) द्युलोक में विद्यमान (शर्धः) बलवान् सूर्य का (नु) शीघ्र ही (आ वृणीमहे) शिल्पकर्म में उपयोग करते हैं। (इन्द्र-वायू) विद्युत् और वायु का (वृणीमहे) उपयोग करते हैं। (यद् ह) जब वे विद्युत् और वायु (नाभा) केन्द्रभूत अन्तरिक्ष में (सन्दाय) पृथिवी आदि लोकों को आकर्षण-गुण से बाँधकर (नव्यसे) हर ऋतु में नवीन रूप में प्रकट होनेवाले (विवस्वते) अन्धकार-निवारक सूर्य के चारों ओर (क्राणा) परिक्रमा कराते हैं, (अध) तब (नूनम्) निश्चय ही (धीतयः) सूर्य-किरणें (उप प्रयन्ति) उन पृथिवी आदि लोकों को प्राप्त होती हैं। शेष पूर्ववत् ॥५॥ इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। ‘वृणीमह, वृणीमहे’ में लाटानुप्रास और ‘धीतयो, धीतयः’ में यमक है ॥५॥
भावार्थ - जैसे शिल्पविद्या की उन्नति से अग्नि, सूर्य, बिजली और वायु को यन्त्र, यान आदियों में भली-भाँति प्रयुक्त करके मनुष्य महान् सुख प्राप्त कर सकते हैं, वैसे ही योगविद्या की उन्नति से जीवात्मा, मन, प्राण एवं इन्द्रियों के सामञ्जस्य द्वारा योगसमाधि और मोक्ष प्राप्त किये जा सकते हैं ॥५॥
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