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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 466
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्रः छन्दः - अष्टिः स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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त꣢व꣣ त्य꣡न्न꣢꣯र्यं नृ꣣तो꣡ऽप꣢ इन्द्र प्रथ꣣मं꣢ पू꣣र्व्यं꣢ दि꣣वि꣢ प्र꣣वा꣡च्यं꣢ कृ꣣त꣢म् । यो꣢ दे꣣व꣢स्य꣣ श꣡व꣢सा꣣ प्रा꣡रि꣢णा꣣ अ꣡सु꣢ रि꣣ण꣢न्न꣣पः꣢ । भु꣢वो꣣ वि꣡श्व꣢म꣣भ्य꣡दे꣢व꣣मो꣡ज꣢सा वि꣣दे꣡दूर्ज꣢꣯ꣳ श꣣त꣡क्र꣢तुर्वि꣣दे꣡दिष꣢꣯म् ॥४६६॥

स्वर सहित पद पाठ

त꣡व꣢꣯ । त्यत् । न꣡र्य꣢꣯म् । नृ꣣तो । अ꣡पः꣢꣯ । इ꣣न्द्र । प्रथम꣢म् । पू꣣र्व्य꣢म् । दि꣣वि꣢ । प्र꣣वाच्य꣢म् । प्र꣣ । वा꣡च्य꣢꣯म् । कृ꣣त꣢म् । यः । दे꣣व꣡स्य꣢ । श꣡व꣢꣯सा । प्रा꣡रि꣢꣯णाः । प्र꣣ । अ꣡रि꣢꣯णाः । अ꣡सु꣢꣯ । रि꣣ण꣢न् । अ꣣पः꣢ । भु꣡वः꣢꣯ । वि꣡श्व꣢꣯म् । अ꣣भि꣢ । अ꣡देव꣢꣯म् । अ । दे꣣वम् । ओ꣡ज꣢꣯सा । वि꣣दे꣢त् । ऊ꣡र्ज꣢꣯म् । श꣣त꣡क्र꣢तुः । श꣣त꣢ । क्र꣣तुः । विदे꣢त् । इ꣡ष꣢꣯म् ॥४६६॥


स्वर रहित मन्त्र

तव त्यन्नर्यं नृतोऽप इन्द्र प्रथमं पूर्व्यं दिवि प्रवाच्यं कृतम् । यो देवस्य शवसा प्रारिणा असु रिणन्नपः । भुवो विश्वमभ्यदेवमोजसा विदेदूर्जꣳ शतक्रतुर्विदेदिषम् ॥४६६॥


स्वर रहित पद पाठ

तव । त्यत् । नर्यम् । नृतो । अपः । इन्द्र । प्रथमम् । पूर्व्यम् । दिवि । प्रवाच्यम् । प्र । वाच्यम् । कृतम् । यः । देवस्य । शवसा । प्रारिणाः । प्र । अरिणाः । असु । रिणन् । अपः । भुवः । विश्वम् । अभि । अदेवम् । अ । देवम् । ओजसा । विदेत् । ऊर्जम् । शतक्रतुः । शत । क्रतुः । विदेत् । इषम् ॥४६६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 466
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
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पदार्थ -
हे (नृतो) पृथिवी आदि लोकों को नचानेवाले (इन्द्र) जगदीश्वर ! (तव) तुम्हारा (त्यत्) वह प्रसिद्ध, (नर्यम्) नरों का हितकर, (प्रथमम्) श्रेष्ठ, (पूर्व्यम्) पूर्वकाल से चला आ रहा (अपः) कर्म (प्रवाच्यम्) प्रशंसनीय है, (यः) जो तुम (देवस्य) प्रकाशक सूर्य के (शवसा) बल से (असु) प्राण को (रिणन्) प्रेरित करना चाहते हुए, (अपः) अन्तरिक्ष में स्थित जलों को (प्रारिणाः) वर्षा द्वारा नीचे गिराते हो, और (विश्वम्) सब (अदेवम्) अप्रकाश के कारणभूत भौतिक और मानसिक अन्धकार को (ओजसा) बल से (अभिभुवः) परास्त करते हो। आगे परोक्षकृत वर्णन है—(शतक्रतुः) अनन्त प्रज्ञावाला और अनन्त कर्मोंवाला वह जगदीश्वर (ऊर्जम्) बल तथा प्राण को (विदेत्) प्राप्त कराये, (इषम्) इच्छासिद्धि को (विदेत्) प्राप्त कराये ॥१०॥ इस मन्त्र में ‘रिणा, रिण’, ‘देव, देव’, ‘विदेदू, विदेदि’ में छेकानुप्रास अलङ्कार है ॥१०॥

भावार्थ - परमेश्वर ही सूर्य द्वारा पृथिवी आदि लोकों को नचाता हुआ सूर्य के चारों ओर तथा अपनी धुरी पर घुमाता है। वही जैसे अन्तरिक्ष में रुके हुए जलों को बरसाता है, वैसे ही आत्मलोक में रुकी हुई आनन्द-धाराओं को मनोभूमि पर प्रवाहित करता है। वही जैसे विशाल अन्धकार को विदीर्ण कर भौतिक प्रकाश को उत्पन्न करता है, वैसे ही मन की भूमि पर व्याप्त तमोगुण के जाल को विच्छिन्न करके आत्म-प्रकाश को प्रकट करता है ॥१०॥ इस दशति में सूर्य, पवमान, हरि, सविता, अग्नि, विष्णु नामों से जगदीश्वर आदि के गुण-कर्मों का वर्णन होने से तथा ‘विश्वे देवाः’ और मरुतों का आह्वान होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ पञ्चम प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ चतुर्थ अध्याय में द्वादश खण्ड समाप्त ॥ यह चतुर्थ अध्याय समाप्त हुआ ॥

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